※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

प्रेमभक्तियोग का तत्त्व




हमारा मन वहीँ लगता है,जहाँ हमारी अभिलाषितवस्तु होती है,जहाँ हमेँ अपनी रुचिके अनुकूलसुख,सौन्दर्य,माधुर्य,ऐश्यवर्यआदि दिखायी देते है।विचार करके देखनेसे पता लगता है कि जगत मेँ हम जो प्रियवस्तु,सुख,सौन्दर्य,माधुर्य,ऐश्वर्यआदि देखते है,उन सभीका पूर्ण अमित अनन्तभण्डार श्रीभगवान् हैँ।समस्त वस्तुएँ,समस्तगुण,समस्त सुख-सौन्दर्य भगवानकेकिसी एक अंशके प्रतिबिम्बमात्र हैँ।उसमहान् अनंत अगाध सागरके सीकर-कणकी छायामात्रा हैँ।हमेँ जो वस्तुजितनी चाहिए,जब चाहिए,वही वस्तुउतनी ही और उसी समय भगवानमेँ मिल

सकती है;क्योँकि वे सदा उनसे अनंतरुपसेभरी हैँ और चाहे जितनी निकालली जानेपर भी कमी उनकी अनंतता मेँकमी नहीँ आती।अतएव हमारा मन जिसकिसी मेँ लगता हो,उसी को दृढ़ विश्वासके साथ भगवानमेँ  देखना चाहिए।फिर हमकभी भगवानसे अलग नहीँ होँगे और भगवान हमसे अलग नहीँ होँगे;क्योँकि सबकुछ भगवानसे,भगवानमेँ है तथा भगवत्स्वरुपही है।भगवान ने कहा है-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वँ च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे प्रणश्यमि।। (गीता6.30)

'जो पुरुष संपूर्ण भूतोँमेँ सबके आत्मरुप मुझवासुदेवको ही व्यापक देखता है और संपूर्णभूतोँको मुझ वासुदेवके अंतर्गतदेखता है,उसके लिए मैँ अदृश्यनहीँ होता और वह मेरे लिए अदृश्यनहीँ होता।भाव यह कि वह मुझे देखता रहता है और मैँ उसे देखता रहता हूँ।'

इसीके साथ हमेँ अपनेको ऐसा बनाना चाहिए,जो भगवानको अत्यंतप्रिय हो।गीतामेँ 12वेँ अध्यायके 13वेँसे 19वेँ श्लोकतक भगवान ने अपने प्रियभक्तके लक्षणोँका वर्णन किया है।और अंतमेँ कहा है-

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे
प्रियाः।। (गीता12.20)

'परंतु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायणहोकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममयअमृतको निष्काम प्रेमभावसे सेवन करते हैँअर्थात् उस प्रकारका अपना जीवनबनानेमेँ तत्पर होते है,वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय है।'इसलिए हमेँ  अपनेमेँ  उन सब भावोँकी दृढ़स्थापना करनी चाहिए,जो भगवानको प्रियहैँ।ऐसा होनेपर जब भगवान् हमसे प्रेमकरने लगेँगे,उनका मन हममेँ लगा रहेगा-(प्रेम तो वे अब भी करते हैँ।परंतु हमेँ उनका अनुभव नही होता,उनके अनुकूल आचरण करनेसे अर्थात् उन सब प्रियगुणोँको जीवनमेँ  उतारनेसे हमेँ  भगवान केप्रेमका अनुभव होने लगेगा) तब हमारा मन भी उसमेँ लगा रहेगा।हमेँ तो बस,विनोदपूर्वक भगवानसे यही भावरखना चाहिए और यही मन-ही-मनकहना चाहिए कि 'प्रभो ! न तो मैँ दूसरेको देखूँगा और न आपको देखने दूँगा।'

आवहु मेरे नयन मेँ पलक बँद करि लेउँ।
ना मै देखौँ और कौँ ना तोहि देखन देउँ।।
नारायण जाके हृदै सुंदर स्याम समाय।
फूल-पात-फल-डार मैँ ता कौँ वही दिखाय।।


-श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी'

'प्रेमयोग का तत्त्व' नामक पुस्तक
से,गीताप्रेस गोरखपुर