प्रेमसे ही प्रभु मिलते हैँ।
भगवान जल्दी से जल्दी कैसे मिलेँ-यह भाव जाग्रत रहने पर ही भगवान मिलते हैँ।यह लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती चलें।ऐसी उत्कट इच्छा ही प्रेममयके मिलनेका कारण है और प्रेमसे ही प्रभु मिलते हैँ।प्रभुका रहस्य और प्रभाव जाननेसे ही प्रेम होता है।थोड़ा सा भी प्रभुका रहस्य जाननेपर हम उसके बिना एक क्षणभर भी नहीँ रह सकते। पपीहा मेघको देखकर आतुर होकर विह्वल हो उठता हैँ।ठीक उसी प्रकार हमेँ प्रभुके लिए पागल हो जाना चाहिए।हमेँ एक-एक पल उसके बिना असह्य हो जाना चाहिए। मछलीका जलमेँ,पपीहे का मेघमेँ,चकोरका चंद्रमामे जैसा प्रेम है वैसा ही हमारा प्रेम प्रभुमेँ हो।एक पल भी उसके बिना चैन न मिले,शान्ति न मिले।ऐसा प्रेम प्रेममय संतो की कृपासे ही प्राप्त होता है।चंदनके वृक्षकी गंधको लेकर वायु समस्त वृक्षोँको चंदनमय बना देता है।बनानेवाली तो गंध ही है परंतु वायुके बिना उसकी प्राप्ति नहीँ हो सकती।इसी प्रकार संतलोग आनंदमयके आनंदकी वर्षा कर विश्वको आनंदमय कर देते हैँ,प्रेम और आनंदके समुद्रको उमड़ा देते हैँ।गौरांग महाप्रभु जिस पथसे निकलते थे,प्रेमका प्रवाह बहा देते थे।गोस्वामीजी की लेखनीमेँ कितना अमृत भरा पड़ा है।पर ऐसे प्रेमी संतोके दर्शन भी प्रभुकी पूर्ण कृपा से होते हैँ।प्रभु की कृपा तो सबपर पूर्ण है ही,किँतु पात्र बिना वह कृपा फलवती नहीँ होती।शरणागत भक्त ही प्रभुकी ऐसी कृपाके पात्र है,अतएव हमेँ सर्वभावसे भगवानके शरण होना चाहिए।सर्वथा उसका आश्रित बनकर रहना चाहिये।सब प्रकारसे उसके चरणोँमेँ अपनेको सौँप देना चाहिए।भगवानने कहा है-
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिँ स्थानं प्राप्स्यति शाश्वतम्।। (गीता 18.62)
'हे भारत ! सब प्रकार से उस परमेश्वरकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो।उसकी कृपासे ही परम शांतिको और सनातन परम धामको प्राप्त होगा।'
मनसे,वाणीसे और कर्म से शरण होना चाहिए।तभी समर्पण होता है यानी उस परमेश्वरको मनसे भी पकड़ना चाहिए,वाणीसे भी पकड़ना चाहिए और कर्मसे भी पकड़ना चाहिए।उनके किए हुए विधानोँमेँ प्रसन्न रहना,उनके नाम,रुप,गुण और लीलाओँका चिँतन करना मनसे पकड़ना है।नामोच्चारण करना,गुणगान करना वाणीसे पकड़ना है और उनके आज्ञानुसार चलना कर्मसे यानी क्रियाओ से पकड़ना है।
-श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी' 'प्रेमयोगका तत्त्व' पुस्तकसे