※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

अनन्य प्रेम

ब्रजराज भगवान् श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम होनेमेँ ही इस जीवनकी सार्थकता है।जिस बड़भागीने इस दिव्य,अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम-पीयूषका पान कर लिया,उसका जन्म सफल हो जाता है।उसकी युग-युग की,जन्म-जन्मोँकी विषय-पिपासा बुझ जाती,शांत हो जाती है।भवताप से सन्तप्त प्राणी भगवत्प्रेमकी पावन गंगामे निमज्जन करके ही पूर्ण शांति प्राप्त कर सकता है।यही वह परम रस है,जिसे पीकर मनुष्य सिद्ध,अमर और तृप्त हो जाता है।जिस प्रेमके प्राप्त होनेपर मनुष्य न तो किसी वस्तु की इच्छा करता है,न शोक करता है,न द्वेष करता है,न किसी भी वस्तुमेँ आसक्त होता है और न (विषयभोगोँकी प्राप्तिमेँ) उसे उत्साह होता है।

प्रेम साधन भी है और साधनोँका फल (साध्य) भी।परमात्माकी ही भाँति प्रेमका स्वरुप भी अनिर्वचनीय है,गूँगे के स्वादकी तरह यह वाणीका विषय नहीँ होता।इसलिए प्रेमका स्वरुप अलौकिक बतलाया गया है;क्योँकि वह लोकसे सर्वदा विलक्षण है।लौकिक प्रेम भोग-कामनाओँ और दुर्वासनाओँसे वासित होनेके कारण शुद्ध नहीँ होता।जहाँ वासनाका आधिपत्य है,वह प्रेम नहीँ,आसक्तिमूलक मोह है।इसके अतिरिक्त लौकिक प्रेमके आलम्बन क्षणिक एवं नाशवान होते है; अतः वह भगवत्प्रेमके सामने हेय ही है।भगवत्प्रेम भी यदि किसी कामनासे किया जाय तो वह सकाम कहलाता है।साकाम प्रेममेँ दिव्यता,अनन्यता एवं विशुद्धता का अभाव होता है।कामना लौकिक वस्तुके लिए ही होती है,अतः लौकिकताका सम्मिश्रण हो जानेसे उसकी दिव्यता नष्ट हो जाती है तथ उक्त कामनामेँ वह प्रेम बँट जाता है,इसलिए उसमेँ एकनिष्ठता एवं अनन्यता नहीँ रह जाती।इसी प्रकार कामनासे मिश्रित या दूषित हो जानेसे वह प्रेम विशुद्ध नहीँ रह पाता।दिव्य,अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम तो तीनोँ गुणोँसे अतीत और कामनाओँसे रहित होता है,वह प्रतिक्षण बढ़ता है,कभी घटता नहीँ,वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म होता है,उसे वाणीद्वारा व्यक्त नहीँ किया जा सकता,वह तो अनुभवकी वस्तु है।

हेतु या कामना ही प्रेमका दूषण है,निर्हेतुक अथवा निष्कामप्रेम मेँ कामनाकी गंध भी नही है,इसलिए यह शुद्ध है।अपने अभिन्न प्रियतम परमात्मा श्रीकृष्णके सिवा और कोई इस प्रेमका लक्ष्य नहीँ है,इसलिए यह अनन्य है तथा ऊपर कहे अनुसार लोकसे सर्वथा विलक्षण होनेके कारण यह प्रेम दिव्य है।

इस प्रेमको पाकर प्रेमी सदा आनंदमेँ मस्त रहता हैं।संसारकी चिँताएँ उसका स्पर्श भी नहीँ कर सकतीँ,उसकी दृष्टिमेँ प्रेमके सिवा और कुछ रह ही नहीँ जाता।वह तो प्रेमको ही देखता,प्रेमको ही सुनता और प्रेमका ही वर्णन तथा चिँतन करता है।उसके मन,प्राण और आत्मा प्रेमकी ही गंगामे अनवरत अवगाहन करते रहते है।वह अपने सब धर्म और आचरणप्रेममय श्रीकृष्णको ही अर्पण कर देता है।उनकी पलभरके लिए भी याद भूलनेपर वह अत्यंत व्याकुल-बहुत बेचैन हो जाता है। वह सर्वत्र प्रेममय भगवानको ही देखता है, सब कुछ भगवानमेँ ही देखता है, ऐसी दृष्टि रखनेवालेकी नजरसे भगवान अलग नहीँ हो सकते तथा वह भी भगवानसे अलग नहीँ हो सकता।

इस प्रकार दोनोँका नित्य ऐक्य-शाश्वत संयोग बना रहता है। भगवान ऐसे भक्तका लोकोत्तर अनुराग देख अपनी महेश्वरता भूल जाते और मुग्ध होकर अपने प्राणप्रिय भक्तको निहारते रहते है, उसके साथ उसी के अनुरुप बनकर उसकी इच्छाके अनुकूल विग्रह धारण कर खेलते, नृत्य करते, गाते-बजाते और आनंदित होते रहते हैँ।
-श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी'
'प्रेमयोग का तत्त्व' पुस्तक से