प्रेमका वास्तविक वर्णन हो नहीँ सकता।प्रेम जीवनको प्रेममय बना देता है।प्रेम गूँगेका गुड़ है।प्रेमका आनंद अवर्णनीय होता है।रोमांच,अश्रुपात,प्रकम्प
बरसते हुए मेघ जिधरसे निकलते हैँ उधरकी ही धराको तर कर देते हैँ।इसी प्रकार प्रेमकी वर्षासे यावत् चराचरको तर कर देता है।प्रेमी के दर्शनमात्रसे ही हृदय तर हो जाता है और लहलहा उठता है।तुलसीदासजी महाराजने कहा है-
मोरेँ मन प्रभु अस विश्वासा।राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिँधु घन सज्जन धीरा।चंदन तरु हरि संत समीरा॥
समुद्रसे जल लेकर मेघ उसे बरसाते हैँ और वह बड़ा ही उपकारी होता है।भगवान समुद्र हैँ और संत मेघ।भगवानसे ही प्रेम लेकर संत संसारपर प्रेम बरसाते हैँ और जिस प्रकार मेघका जल नदियोँ,नालोँ से होकर पृथ्वीको उर्वरा बनाते हुए समुद्रमेँ प्रवेश कर जाता है,ठीक उसी प्रकार संत भी प्रेमकी वर्षा कर अंतमेँ प्रभुके प्रेमको प्रभुमेँ ही समर्पित कर देते हैँ।
प्रभु चंदनके वृक्ष हैँ और संत बयार(वायु)।जिस प्रकार हवा चंदन की सुगन्ध को दिग्दिगन्तमेँ फैला देती है,उसी प्रकार संत भी प्रभुकी दिव्य गन्धको प्रवाहित करते रहते हैं।संत को देखकर प्रभुकी स्मृति आती है,अतएव संत प्रभुके स्वरुप हैँ,इसी प्रकार श्रद्धालु पुरुष भी केवल संतोके ही आश्रय रहते हैँ।
प्रेमीके वाणी और नेत्र आदिसे प्रेमकी वर्षा होती रहती है।उसका मार्ग प्रेमसे पूर्ण होता है।वह जहाँ जाता है वहाँके कण-कणमेँ,हवामेँ,धूलिमेँ उसके स्पर्शके कारण प्रेम-ही-प्रेम दृष्टिगोचर होता है।उसका स्पर्श ही प्रेममय होता है,स्नेहसे ओतप्रोत होता है।
-श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी'
'प्रेमयोग का तत्त्व' नामक पुस्तक से