※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 5 नवंबर 2011

संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम होनेका उपाय

श्रीभगवानकी प्राप्तिकी इच्छावाले पुरुषोँको संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम हो-इसके लिए विशेष चेष्टा करनी चाहिए।साधन मेँ विक्षेप,आलस्य,भोग,प्रमाद आदि अनेक विघ्न हैँ, उनमेँ मनकी चंचलता अर्थात विक्षेपऔर आलस्य-ये दो प्रधान है; किँतु संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम होनेपर इन सबका अपने-आप ही विनाश हो सकता है।अतः संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम होनेके लिए ही विशेष प्रयत्न करनेकी आवश्यकता है।
संसारसे वैराग्य होनेका उपाय है-संसारको नाशवान्,क्षण-भङ्गुर,दुःखरुप,घृणित,हानिकर और भयदायक समझना,वैराग्यवान पुरुषोँका संग करना,वैराग्यविषयक पुस्तकेँ पढ़ना और चित्तमेँ वैराग्यकी भावना करना।इनसे संसारमेँ वैराग्य हो जाता है।

भगवानमेँ प्रेम होनेका उपाय है-
भगवानके नाम,रुप,लीला,धामके गुण,प्रभाव,तत्त्व रहस्यकी बातोँको सुनना,पढ़ना और मनन करना, भगवानमेँ जिनका प्रेम है,उन पुरुषोँका संग करना; भगवानसे सच्चे हृदयसे करुणाभावपूर्वक गद्गदकण्ठ हो स्तुति-प्रार्थना करना; 'भगवान मेरे है और मैँ भगवानका हूँ'-इस प्रकार भगवानके साथ अपना नित्य-संबंध समझना; मनसे भगवानका दर्शन,भाषण,स्पर्श,वार्तालाप और चिंतन करना तथा हर समयनिष्कामभावसे भगवानके नाम-रुपको स्मरण रखना।ऊपर बतलायी हुई इन सभी बातोँपर श्रद्धा-विश्वास करके उनको काममेँ लानेसे बहुत शीघ्र भगवानमेँ प्रेम हो सकता है।
जब साधकका संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ अनन्य प्रेम हो जाता है,तब फिर दुर्गुण,दुराचार,दुर्व्यसन,सांसारिक संकल्प, आलस्य, प्रमाद, भोगेच्छा आदि सब दोषोँका नाश होकर उसे भगवानका यथार्थ ज्ञान हो जाता है और उसमेँ स्वाभाविक ही समता आ जाती है; फिर उत्तम गुण तो उसमेँ अपने-आप ही आ जाते हैँ तथा उसके द्वारा होनेवाली संपूर्ण क्रियाएँ भी उत्तम-से-उत्तम होने लगती हैँ।उसे परम शांति और परम आनंदका अनुभव होता रहता है।इसलिए ऐसा पुरुष कभी संसारके विषय-भोगोँको और कुसंगको पाकर भी उनमेँ नहीँ फँसता।
-श्रद्धेय जयदयालजी गोयंदका 'सेठजी'