※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 6 नवंबर 2011

संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम होनेका उपाय



                                     ॥श्रीहरिः॥

अपने दैनिक जीवनमेँ उपर्युक्त बातोँको किस प्रकार काममेँ लाया जाय-इसके
लिए नीचे लिखी हुई तीन बातोँपर विशेष ध्यान देना चाहिए-

(1) जब हम रात्रिमेँ सोने लगेँ, तब उस समय हमेँ उचित है कि हम भगवानके
नाम,रुप,गुण,प्रभावको स्मरण करते-करते ही शयन करेँ। इससे रातमेँ प्रायः
बुरे स्वप्न नहीँ आते और हमारा वह शयनकाल भी साधनकालके रुपमेँ ही परिणत हो सकता है।


(2) दिनमेँ कार्य करते समय यह समझना चाहिए कि मैँ जो कुछ कर रहा हूँ,भगवानका ही काम कर रहा हूँ और भगवानकी आज्ञासे भगवानके लिए ही कर रहा हूँ एवं ये जड़चेतनात्मक सब पदार्थ भगवानके है और मैँ भी भगवानका हूँ तथा भगवान मेरे है और वे सबमेँ व्यापक है; इसलिए सबकी सेवा भगवानकी ही सेवा है। तथा व्यवहार करते समय स्वार्थत्याग, संपूर्ण प्राणियोँके प्रति हितैषिता, उदारता,समता,स्वाभाविक दया-इनपर विशेष ध्यान रखना चाहिए।इससे व्यवहार स्वाभाविक ही बहुत उच्चकोटि का होने लग जाता है।


इससे भी बढ़कर एक भाव यह है कि जो भी क्रिया करे, उसे अहंकार और अभिमानसे रहित होकर करे और यह समझे कि मेरे द्वारा जो कुछ भी क्रिया होती है,वह भगवान ही करवा रहे हैँ,मैँ तो केवल निमित्तमात्र हूँ।इस प्रकारके भावसे होनेवाली क्रियामेँ कभी दुर्गुण,दुराचार,दुर्व्यसनकी गुंजाइश नहीँ रहती।यदि उसमेँ दुर्गुण,दुराचार,दुर्व्यसन हो तो समझना चाहिए कि उसकी
क्रिया होनेमेँ भगवानका हाथ नहीँ है,कामका हाथ है।गीता मेँ अर्जुनके द्वारा यह पूछने पर-


अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥
(3.36)

'कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्कारसे लगाये हुएकी
भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?'

भगवानने कहा-


काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥
(गीता 3.37)

'रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है,यह बहुत खानेवाला अर्थात भोगोँसे कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है; इसको ही तुम इस विषयमेँ वैरी जानो।'


(3) एकांत मेँ बैठकर साधन करते समय भी प्रथम मन-इंद्रियोँको वशमेँ करना चाहिए।मनको वश मेँ करनेके लिए अभ्यास और वैराग्य ही प्रधान है।भगवानने गीतामेँ बतलाया है-


असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
(6.35)

'महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनतासे वशमेँ होने-वाला है; परंतु कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्यसे वशमेँ होता है।'
मनको वशमेँ करलेनेपर इंद्रियोँका वशमेँ होना उसके अन्तर्गत ही है।मन वशमेँ होनेके बाद श्रद्धा-प्रेमपूर्वक भगवानके नाम और स्वरुपका स्मरणरुप साधन करना चाहिए; क्योँकि मनको वशमेँ किये बिना साधन होना सुगम नहीँ है और साधन करनेसे भगवानकी प्राप्ति होती है। भगवान कहते हैँ-
'असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मेँ मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥
(गीता 6.36)

'जिसका मन वशमेँ किया हुआ नहीँ है, ऐसे पुरुषद्वारा योग (भगवत्-प्राप्ति) दुष्प्राप्य है और वशमेँ किये हुए मनवाले प्रयत्नशील-पुरुषद्वारा साधनसे उसका प्राप्त होना सहज है-यह मेरा मत है।'


तथा भगवानने आगे सब साधनोँमेँ श्रद्धापूर्वक भगवानके भजन-चिँतनरुप भक्तिके साधनको ही श्रेष्ठ बतलाया है-


योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
(गीता 6.47)

'संपूर्ण योगियोँमेँ भी श्रद्धावान योगी मुझमेँ लगे हुए अंतरात्मा से
मुझको निरंतर भजता है,वह योगी मुझे परमश्रेष्ठ मान्य है।'



अथवा एकांतमेँ बैठकर संपूर्ण कामनाओँका त्यागकर मनसे इंद्रियोँको वशमेँ करके और संसारसे उपराम होकर मनको परमात्मामेँ लगा देना चाहिए।परमात्माकी प्राप्तिका यह भी एक उत्तम प्रकार है।भगवानने स्वयं गीता मेँ बतलाया है-


संकल्पप्रभवान्‌ कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥
शनैः शनैरुपरमेद्‌ बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्‌॥
(गीता 6.24-25)

'संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली संपूर्ण कामनाओँको निःशेषरुपसे त्यागकर और मनके द्वारा इंद्रियोँके समुदायको सभी ओरसे भली-भाँति रोककर क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरतिको प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा मनको परमात्मामेँ स्थित करके परमात्माके सिवा और कुछ भी चिँतन न करे।'


एवं-
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌।
ततस्ततो नियम्येतदात्मन्येव वशं नयेत्‌॥
(गीता 6.26)

'यह स्थिर न रहनेवाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि निमित्तसे संसारमेँ विचरता है,उस-उस विषयसे रोककर यानी हटाकर उसे बार-बार परमात्मामेँ ही निरुद्ध करे अर्थात् परमात्मामेँ ही लगावे।'

अतएव संसारके विघ्नोँका नाश होकर परमात्माकी प्राप्तिके उद्देश्य से उपर्युक्त प्रकारसे संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम होनेके लिए विशेष कोशिश करनी चाहिए।