॥श्रीहरिः॥
प्रश्न- प्रेम और श्रद्धामेँ अधिक महत्त्व किसका है? प्रेमका या श्रद्धाका ?
उत्तर- श्रद्धा प्रेम को साथ रखती है परंतु प्रेम बिना श्रद्धाके भी हो सकता है। स्त्रीका पतिमेँ, माताका बच्चे मेँ, गाय का बछड़ेमेँ प्रेम होता है, पर वहाँ श्रद्धा नहीँ है। इस प्रेम का कोई महत्त्व नहीँ है। बिना श्रद्धाका प्रेम मूल्यवान नहीँ है। वैसे अपने-अपने स्थानमेँ दोनोँ ही ठीक हैँ। सच्चा प्रेम भगवानमे हो तो वह महत्त्वका है। प्रेमका मूल्य भक्तिके मार्गमेँ है। श्रद्धाकी दोनोँ ही मार्गोँमेँ आवश्यकता है। भक्ति और ज्ञान एक ही चीज है। ईश्वरमेँ परम प्रेम, अनुराग ही असली भक्ति है। इसलिए ऐसा प्रेम ही प्राप्त करना जीवनका चरम लक्ष्य होना चाहिए।
श्रद्धाके बिना किसीका भी काम नहीँ चलता, न भक्तिमार्गवालेका न ज्ञानमार्गवाले का, श्रद्धाके बिना प्रेम भी नहीँ ठहर सकता। श्रद्धा हटी कि प्रेम हटा। श्रद्धा मूल जड़ है।
प्रह्लादको धन्य है, पाहन (पत्थर) से परमेश्वरको प्रकट कर दिया, श्रद्धासे ही निकाला। खम्भेमेँ, सिल-लोढेमेँ, जलमेँ, अग्निमेँ या सूर्यमेँ-किसीमेँ भी श्रद्धा करो कि यह साक्षात् नारायण हैँ या अपनी आत्मामेँ श्रद्धा करो। उसमेँ भी नहीँ हो तो भुगतो, जन्मो और मरो। अरे भाई ! विश्वमेँ किसीमेँ तो श्रद्धा करो। बिना आधारके तो दुर्दशा ही दुर्दशा है। किसीका तो आधार होना चाहिए। जलमेँ नौका का भी आधार होता है तो मनुष्य डूबनेसे बच जाता है। अतः शास्त्ररुपी नौका का, ईश्वरका, महात्माका किसीका तो आधार होना चाहिए। अपने ऊपर कोई एक तो शासन करनेवाला होना चाहिए। स्वतंत्र रहा कि डूबा, फिर परस्त्री, शराब, झूठ, कपट किसकी परवाह करेगा।
'अनुज बधू भगिनी सुत नारी । सुनु सठ कन्या सम ए चारी ॥'
जब शास्त्र ही नहीँ मानेगा तो पाप कौन मानेगा? जितने पाप हैँ शास्त्र ही तो उनका निर्णय करता है। शास्त्रका शासन या महात्माका शासन या ईश्वरका भय होना चाहिए। जैसे रोगी वैद्यकी बात मानेगा, कुपथ्य नहीँ करेँगा तो शीघ्र रोगसे छूट जायगा और यदि वैद्यका शासन न मानकर कुपथ्य करेगा तो मर जायगा। उसका शासन मानेगा तो कुपथ्यसे बचेगा, इसी प्रकार महात्माका शासन मानकर चलेगा तो पतनसे बच जायगा, नहीँ मानेगा तो नीची योनियोँमेँ गिरेगा। इस प्रकार उसका नाश ही होगा। परलोक, ईश्वर और महात्मामेँ श्रद्धा ही पापोँसे बचनेका उपाय है।
भगवानका अस्तित्व न माननेमेँ पाप-अश्रद्धा ही हेतु है। पूर्व संचित पाप ही कारण है। श्रद्धा न भी हो तो भी अच्छे पुरुषोँकी बात मानकर काम करे तो श्रद्धा पैदा हो जाती है। सत्संगमेँ प्रीति न हो तो भी सत्संगमेँ जाते-जाते प्रीति हो जाती है। जैसे विद्यामेँ प्रीति नहीँ होती है तो भी पढ़ते-पढ़ते प्रीति हो जाती है। इसी प्रकार भजन करते-करते ही भजनमेँ और भजनीय प्रभुमेँ प्रेम हो जाता है।