※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 30 नवंबर 2011






जीवात्मा अपने मनसे फिर कहता है --


रे मन ! सावधान ! सावधान ! किसलिए व्यर्थ प्रलाप करता है! वे श्रीसच्चिदानन्दघन हरि झूठी विनती नहीं चाहते ! अब तेरा कपट यहाँ नहीं चलेगा, तू मेरे लिये क्यों हरिसे कपटभरी प्रार्थना करता है ? ऐसी प्रार्थना मैं नहीं चाहता, तेरी जहाँ इच्छा हो वहाँ चला जा ! 


यदि हरि अन्तर्यामी हैं तो प्रार्थना करनेकी क्या आवश्यकता है? यदि वे प्रमी हैं तो बुलानेकी क्या आवश्यकता है ? यदि वे विश्वम्भर हैं तो माँगनेकी क्या आवश्यकता है? तेरको नमस्कार है, तू यहाँसे चला जा; चला जा !!४!!

मंगलवार, 29 नवंबर 2011






मन फिर परमात्मासे प्रार्थना करता है --


प्रभो ! प्रभो ! दया करिए, हे नाथ ! मैं आपकी शरण हूँ ! हे शरणागतप्रतिपालक ! शरण आयेकी लज्जा रखिये ! हे प्रभो ! रक्षा करिये, रक्षा करिये; एक बार आकर दर्शन दीजिये ! आपके बिना इस संसारमें मेरे लिये कोई भी आधार नहीं है, अतएव आपको बारंबार नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, विलम्ब न करिये, शीघ्र आकर दर्शन दीजिये ! हे प्रभो ! हे दयासिंधो !! एक बार आकर दासकी सुध लीजिये !


आपके न आनेसे प्राणोंका आधार कोई भी नहीं दीखता ! हे प्रभो ! दया करिए,दया करिए, मैं आपकी शरण हूँ, एक बार मेरी और दयादृष्टिसे देखिये ! हे प्रभि ! हे दीनबन्धो !! हे दीनदयालो !!! विशेष न तरसाइये, दया  करिये ! मेरी दुष्टताकी और न देखकर अपने पतितपावन स्वभावका प्रकाश करिये !!३!!  

सोमवार, 28 नवंबर 2011






जीवात्मा अपने मनसे कहता है ---


रे दुष्ट मन! कपटभरी  प्रार्थना   करनेसे क्या अन्तर्यामी भगवान्  प्रसन्न हो सकते हैं? क्या वे नहीं जानते कि ये सब तेरी प्रार्थनाएं निष्काम नहीं हैं?  एवं तेरे ह्रदयमें श्रधा, वीश्वास और प्रेम कुछ भी नहीं है? यदि तेरेको यह वीश्वास है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं तो फिर किसलिए प्रार्थना करता है? बिना प्रेमके मिथ्या प्रार्थना करनेसे भगवान् कभी नहीं सुनते और यदि प्रेम है तो फिर कहनेसे प्रयोजन ही क्या है? क्योंकि भगवान् ने तो स्वयं ही श्रीगीताजीमें कहा है कि --


  ये यथा मां प्रप्घन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् !  (४/ ११ )


' जो मेरेको जैसे भजते हैं मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ !' तथा--


ये भजन्ति तू मां भक्त्या मयि ते तेषु  चाप्यहम् !! (९ / २९ ) 


'जो भक्त मेरेको भक्तिसे भजते हैं वे मेरेमें हैं और मैं भी उनमें ( प्रत्यक्ष प्रकट ) हूँ !*


* जैसे सूक्ष्मरूपसे सब जगह व्याप्त हुआ भी अग्नि साधानोद्वारा प्रकट करनेसे ही प्रत्यक्ष होता है वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्तिसे भजनेवालेके ही अन्तः करणमें प्रत्यक्षरूपसे प्रकट होता है !


रे मन ! हरी दयासिन्धु होकर भी दया न करें तो भी कुछ चिन्ता नहीं, अपनेको तो अपना कर्तव्यकार्य करते ही रहना चाहिए ! हरी प्रेमी  हैं, वे प्रेमको पहचानते हैं! प्रेमके विषयको प्रेमी ही जानता है, वे अन्तर्यामी भगवान् क्या तेरे शुष्क  प्रेमसे दर्शन दे सकते हैं ? जब विशुद्ध प्रेम और श्रद्धा -विश्वासरुपी डोरी तैयार हो जायगी तो उस डोरीद्वारा बंधे हुए हरी आप-हि-आप चले आवेंगे ! रे मुर्ख मन! क्या मिथ्या प्रार्थनासे  काम चल सकता है ? क्योंकि हरी अन्तर्यामी हैं ! रे मन तेरेको नमस्कार है,  तेरा काम संसारमें चक्कर लगानेका है, सो जहाँ तेरी इच्छा हो वहाँ जा ! तेरे ही संगके कारण मैं इस असार संसारमें अनेक दिन फिरता रहा, अब हरिके चरणकमलोंका आश्रय ग्रहण करनेसे तेरा सम्पूर्ण कपट जान गया, तू मेरे लिए कपटभाव  और अति दीन वचनोंसे भगवान् से  प्रार्थना करता है ! 


परन्तु तू नहीं जानता कि हरि अन्तर्यामी हैं ! श्रीयोगवशिष्टमें ठीक ही लिखा है कि मनके अमन हुए बिना अर्थात् मनका नाश हुए बिना भगवान् की प्राप्ति नहीं होती ! वासना का क्षय, मनका नाश और परमेश्वरकी प्राप्ति - यह तीनों एक ही कालमें होते हैं ! इसलिये तेरेसे विनय करता हूँ की तू यहाँसे अपने माजनेसहित चले जा, अब यह पक्षी तेरी मायारूपी फाँसीमें नहीं फँस सकता; क्योंकि इसने हरिके चरणोंका आश्रय लिया है ! क्या तू अपनी दुर्दशा कराके ही जायगा ? अहो ! कहाँ वह माया ? कहाँ काम-क्रोधादि शत्रुगन ? अब तो तेरी सम्पूर्ण सेनाका क्षय होता जाता है, इसलिये अपना प्रभाव पड़नेकी आशाको त्यागकर जहाँ इच्छा हो चला जा !!२ !! 


शनिवार, 26 नवंबर 2011

* ईश्वर दयालु और न्यायकारी है । *




॥ श्रीहरिः ॥

* ईश्वर दयालु और न्यायकारी है । *

ईश्वरका कानून दया, सुहृदता और जीवोँके हितसे पूर्ण होता है। हमलोग तो उसकी कल्पनातक भी नहीँ कर सकते ।

ईश्वरका दण्ड भी वरके सदृश होता है । ईश्वरके न्यायसे फरियादी और असामी दोनोँका ही परिणाममेँ हित और उद्धार होता है, यही उसकी विशेषता है । परम दयालु परमात्माके कानूनके अनुसार जो अपराधी अपनी भूलको सच्चे दिलसे स्वीकार करता हुआ भविष्यमेँ फिर अपराध न करनेकी प्रतिज्ञा करता है और सच्चे हृदयसे ईश्वरकी शरण होकर सर्वस्वसहित अपनेको उसके चरणोँमेँ अर्पण कर देता है एवं ईश्वरकी कड़ी-से-कड़ी आज्ञाको, उसके भयानक-से-भयानक विधानको, उसके प्रत्येक न्यायको सानन्द स्वीकार करता है तथा उसे पुरस्कार समझता है, साथ ही अपने किये हुए अपराधोँके लिए क्षमा नहीँ चाहकर दण्ड ग्रहण करनेमेँ खुश होता है, ऐसे सरलभावसे सर्वस्व अर्पण करनेवाले शरणागत भक्तको भगवान अपराधोँसे मुक्त करके उसे अभय कर देते हैँ । इसमेँ दयालु ईश्वरका न्याय ही सिद्ध होता है । ऐसे भाववाले भक्तको दण्डसे मुक्त करना ही परमात्माके राज्यका दया और न्यायपूर्ण नियम है । इसीसे भगवानमेँ दया और न्याय-दोनोँ एक ही साथ रहते हैँ । श्रीगीताजीमेँ भगवान स्पष्ट कहते हैँ-
अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिँ निगच्छति ।
कौन्येय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ (९। ३०-३१, १८ । ६६)
'यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त हुआ मुझको निरंतर भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है; क्योँकि वह यथार्थ निश्चयवाला है । उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीँ है । अतएव वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शांतिको प्राप्त होता है । हे अर्जुन ! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त (कदापि) नष्ट नहीँ होता । इसलिए सब कर्मोँके आश्रयको त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो, मैँ तुझे समस्त पापोँसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ।'

                        अथ श्री प्रेमभक्तिप्रकाश 






परमात्माकी शरणमें प्राप्त हुए पुरुषका मन परमात्मासे प्राथना करता है :--


हे प्रभो ! हे विश्वम्भर ! हे दीनदयालो ! हे कृपासिन्धो ! हे अन्तर्यामिन् ! हे पतितपावन ! हे सर्वशक्तिमान् ! हे दीनबन्धो ! हे नारायण ! हे हरे ! दया करिये, दया करिये ! हे अन्तर्यामिन् ! आपका नाम संसारमें दयासिन्धु और सर्वशक्तिमान् विख्यात है, इसलिये दया करना आपका काम है! 


हे प्रभो! यदि आपका नाम पतितपावन है तो एक बार आकर दर्शन दीजिये! मैं आपको बारंबार प्रणाम करके विनय करता हूँ; हे प्रभो ! दर्शन देकर कृतार्थ करिए ! 


हे प्रभो! आपके बिना इस संसारमें मेरा और कोई भी नहीं है, एक बार दर्शन दीजिये, दर्शन दीजिये; विशेष न तरसाइये ! आपका नाम विश्वम्भर है, फिर मेरी आशाको क्यों  नहीं पूर्ण करते है! हे करुणामय ! हे दयासागर ! दया करिए ! आप दयाके समुद्र हैं, इसलिए किञ्चित् दया करनेसे आप दयासागरमें कुछ दयाकी त्रुटी नहीं हो जाएगी! आपकी किञ्चित दयासे सम्पूर्ण संसारका उद्धार हो सकता है, फिर एक तुच्छ जीवका उद्धार करना आपके लिए कौन बड़ी बात है?


 हे प्रभो ! यदि आप मेरे कर्तव्यको देखें तब इस संसारसे मेरा निस्तार होनेका कोई उपाय ही नहीं है! इसलिए आप अपने पतितपावन नामकी और देखकर इस तुच्छ जीवको दर्शन दीजिये! मैं न तो कुछ भक्ति जनता हूँ, न योग जनता हूँ, तथा न कोई क्रिया ही जनता हूँ जो की मेरे कर्तव्यसे आपका दर्शन हो सके! आप  अन्तर्यामी होकर यदि दयासिन्धु नहीं होते तो आपको संसारमें कोई दयासिन्धु नहीं कहता, यदि आप दयासागर होकर भी अन्तरकी  पीड़ाको न पहचानते तो आपको कोई भी अन्तर्यामी नहीं कहता! दोनों गुणोंसे युक्त होकर भी यदि आप सामर्थ्यवान् न होते तो आपको कोई सर्वशक्तिमान् और सामर्थ्यवान नहीं कहता! यदि आप केवल भक्तवत्सल ही होते तो आपको कोई पतितपावन नहीं कहता!


 हे प्रभो! हे दयासिन्धो !! एक बार दया करके दर्शन दीजिये !! 

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

* भगवन्नाम का तत्त्व *



॥ श्रीहरिः ॥





* भगवन्नाम का तत्त्व *

असलमेँ नाम और नामीमेँ कोई भेद नहीँ है । वे भिन्न होते हुए भी सर्वथा अभिन्न हैँ । गीतामेँ भगवान कहते हैँ- 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' (१० । २५) । 'सब यज्ञोँमेँ जपयज्ञ मैँ हूँ' -अर्थात् अन्य समस्त यज्ञ तो मेरी प्राप्तिके साधन हैँ, पर जपयज्ञ (नाम-जप) तो स्वयं मैँ ही हूँ । जो इस तत्त्वको हृदयंगम कर लेता है, ठीक-ठीक समझ लेता है, वह नामको कभी भूल नहीँ सकता ।

जो नित्य-निरंतर भगवानके नामका जप करता रहता है वह सद्गुणोँका समुद्र बन जाता हैजिस प्रकार सागरमेँ अनंत जलराशि होती है, उसी प्रकार उसमेँ अनंत सद्गुण आ जाते हैँ । इससे सिद्ध होता है कि नाम बीजकी तरह है । जैसे बीजके बो देनेपर उसमेँसे फूलकर अंकुर उत्पन्न होता है एवं वही पुष्पित और पल्लवित होकर विशाल वृक्ष बन जाता है, वैसे ही नाम जपनेवालेमेँ अनायास ही सारे सद्गुणोँका प्रादुर्भाव हो जाता है ।

इसके लिए मनुष्यको भगवन्नामके गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यको समझना चाहिए । इस प्रकार समझनेसे ही उसकी नाममेँ परम श्रद्धा होती है और श्रद्धासहित किया हुआ जप ही तत्काल पूर्ण फल देता है । अतः भगवानके नाममेँ अतिशय श्रद्धा उत्पन्न हो, इसके लिए हमलोगोँको सत्पुरुषोँका संग करना चाहिए । सत्पुरुषोँका संग न मिलने पर हमेँ सत्-शास्त्रोँका- जिनमेँ भगवान और उनके नामके तत्त्व, रहस्य, गुण, प्रभाव, श्रद्धा और प्रेमकी बातेँ बतायी गयी होँ -अनुशीलन करना चाहिए । इस प्रकार करने से भगवन्नाममेँ श्रद्धा-प्रेम उत्पन्न हो जाता है और किये हुए जपका फल भी, जिसका शास्त्रोँमेँ वर्णन है, तत्काल प्रत्यक्ष देखनेमेँ आ सकता है ।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

*भगवन्नाम का रहस्य*

॥ श्रीहरिः ॥


*भगवन्नाम का रहस्य*.




इसमेँ तनिक भी संदेह नहीँ कि भगवानके नाममेँ पापोँको नाश करनेकी बड़ी भारी शक्ति है
 'नाम अखिल अघपुंज नसावन'-यह उक्ति सर्वथा सत्य है; परंतु लोग इसका रहस्य नहीँ जानने के कारण इसका दुरुपयोग कर बैठते हैँ । वे सोचते हैँ कि नाममेँ पाप-नाशकी महान शक्ति है ही; अभी पाप कर लेँ फिर नाम लेकर उसे धो डालेँगे । यह सोचकर वे अधिकाधिक पाप-पङ्कमेँ फँसते ही चले जाते हैँ । वे यह नहीँ विचारते कि यदि वास्तवमेँ उनकी यह मान्यता ठीक हो, तब तो नामका जप पापोँका विनाशक नहीँ, प्रत्युत वृद्धि करनेवाला ही सिद्ध हुआ; क्योँकि फिर तो सभी लोग नामका आश्रय लेकर मनचाहा पाप करने लगेँगे और इससे वर्तमान कालकी अपेक्षा भविष्यमेँ पापोँकी संख्या बहुत अधिक बढ़ जायगी । जिस प्रकार पुलिस की पोशाक पहनकर चोरी करनेवाला अन्य चोरकी अपेक्षा अधिक दण्डनीय होता है, उसी प्रकार भगवन्नामकी ओट लेकर पाप करनेवाला व्यक्ति अधिक दण्डका पात्र हो जाता है; क्योँकि उसके पाप वज्रलेप हो जाते हैँ; बिना भोगे उसका विनाश नहीँ होता । नामकी आड़ लेकर पाप करना तो नामके दस अपराधोँमेँ से एक नापापराध है । 


नामके दस अपराध ये हैँ-

सन्निन्दासति नामवैभवकथा श्रीशेशयोर्भेदधीरश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां नाम्न्यर्थवादभ्रमः।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ हि धर्मान्तरैः साम्यं नामजपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दश॥


१-सत्पुरुष-ईश्वरका भजन-ध्यान करनेवालोँकी निँदा,

 २-अश्रद्धालुओँमेँ नामकी महिमा कहना, 
३-विष्णु और शिवके नामरुपमेँ भेद-बुद्धि,
 ४-५-६-वेद-शास्त्र और गुरुके द्वारा कहे हुए नाम-माहात्म्यमेँ अविश्वास,
 ७-हरिनाममेँ अर्थवादका भ्रम अर्थात् नाम-महिमा केवल स्तुतिमात्र है, ऐसी मान्यता,
 ८-९- नामके बलपर विहितका त्याग और निषिद्धका आचरण 
१०- अन्य धर्मोँसे नामकी तुलना यानी शास्त्रविहित कर्मोँसे नामकी तुलना-


ये सब भगवान शिव और विष्णुके नाम-जपमेँ नामके दस अपराध हैँ ।
इन दस अपराधोँसे अपनेको न बचाते हुए जो नामका जप करते हैँ, वे नाम के रहस्यको नहीँ समझते ।
वाणी के द्वारा नाम जपनेकी अपेक्षा मनसे-जपना सौगुना अधिक लाभदायक है और वह मानसिक जप भी श्रद्धा-प्रेमसे किया जाय तो शीघ्र परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला है । अतः इस रहस्यको भलीभाँति समझकर भगवान्नामका आश्रय लेना चाहिए ।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

*परमात्मा प्रेम प्राप्ति के साधन*

॥ श्रीहरिः ॥


*परमात्मा प्रेम प्राप्ति के साधन*


(१) भगवद्भक्तोँ द्वारा श्रीभगवानके गुणानुवाद और उनके प्रेम तथा प्रभावकी बातेँ सुननेसे अति शीघ्र प्रेम हो सकता है । भक्तोँके संगके अभावमेँ शास्त्रोँका अभ्यास ही सत्संग के समान है । 

(२) श्रीपरमात्माके नामका जप निष्कामभावसे और ध्यानसहित निरंतर करनेके अभ्याससे भगवानमेँ प्रेम हो सकता है ।

(३) श्रीपरमात्माके मिलनेकी तीव्र इच्छासे भी प्रेम बढ़ सकता है ।

(४) श्रीपरमात्माके आज्ञानुकूल आचरणसे उनके मनके अनुसार चलनेसे उनमेँ प्रेम हो सकता है । शास्त्रकी आज्ञाको भी परमात्माकी आज्ञा समझनी चाहिए ।

(५) भगवानके प्रेमी भक्तोँसे सुनी हुई और शास्त्रोँमेँ पढ़ी हुई श्रीपरमात्माके गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातेँ निष्कामभावसे लोगोँमेँ कथन करनेसे भगवानमेँ बहुत महत्त्वका प्रेम हो सकता है ।




उपर्युक्त पाँचोँ साधनोँमेँ से यदि एकका भी भलीभाँति आचरण किया जाय तो प्रेम होना संभव है । 


मान-अपमानको समान समझकर निष्कामभावसे सबको भगवानका स्वरुप जानकर सबकी सेवा करनी चाहिए ।


 योँ करनेसे भगवत्कृपासे आप ही प्रेम हो सकता है । सबमेँ भगवानका भाव होनेपर किसीपर भी क्रोध नहीँ हो 
सकता है । 


 यदि क्रोध होता है तो समझना चाहिए कि अभी वह भाव नहीँ हुआ । चित्तमेँ कभी उद्वेग नहीँ होना चाहिए । जो 
कुछ हो, उसीमेँ आनंद मानना चाहिए, क्योँकि सभी कुछ उस प्रभुकी आज्ञासे और उसके मतके अनुकूल ही होता है ।


यदि प्रभुके अनुकूल होता है तो फिर हमको भी उसकी अनुकूलतामेँ अनुकूल ही रहना चाहिए । उस परमात्माके 
प्रतिकूल और उसकी आज्ञा बिना कुछ भी होना संभव नहीँ, इस प्रकार निश्चय करके प्रभुकी प्रसन्नतामेँ प्रसन्न 
होकर सब समय आनंदमेँ मग्न रहना चाहिए । (परमार्थ-पत्रावली-भाग-१)

सोमवार, 21 नवंबर 2011

श्रद्धा कैसे हो ?

             ।। श्रीहरि: ।। 
 प्रश्न- श्रद्धा कैसे हो ?
उत्तर- श्रद्धा होने का पहला उपाय भगवान् से प्रार्थना करना तथा दूसरा उपाय आज्ञापालन है। शास्त्र के आज्ञा पालन से शास्त्र में श्रद्धा होती है। बालक को पहले बिना इच्छा ही विद्यालय भेजते हैं, फिर उसकी रुचि हो जाती है। बाद में इतनी रुचि हो जाती है कि घरवालों के रोकने पर भी नहीं मानता, इसी प्रकार कोई भी काम हो, करने से श्रद्धा होती है। इसी प्रकार भजन करते-करते भजन में,महात्मा की आज्ञापालन करते-करते महात्मा में और सत्संग करते-करते सत्संग में श्रद्धा हो जाती है।

कर्तव्य-पालन करना ही अपना उद्देश्य बना ले, उसके फल की ओर नहीं देखे, चलता रहे। अपना जो ध्येय बना ले, कटिबद्ध होकर तत्परता से उसका पालन करे। अपनी ऊँची स्थिति हो तो उसकी ओर भी खयाल नहीं करे, स्वामी यदि नरक में भी डाल दें तो वह भी उत्तम है, उसमें भी अपनी प्रसन्नता ही रहे। श्रद्धा-प्रेम बढ़ने के लिये भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये। यह भी कामना ही है, परन्तु परमात्मा का प्रभाव न जानने का कारण ही प्रार्थना की जाती है। परमात्मा से कहेंगे तो जल्दी होगा, नहीं कहेंगे तो नहीं होगा-ऐसी बात नहीं है। कर्तव्य पालन करने से प्रभु स्वयं ही करेंगे, प्रभु सब अच्छा ही करेंगे। अच्छा ही करते हैं इसकी ओर भी लक्ष्य नहीं करना चाहिये। हमें तो यही देखना है कि हमारा काम प्रभु की सम्मति के अनुसार हो रहा है,उसी पर भार रखे। उससे भी ऊँची बात यह है कि मनमेँ स्वार्थ की बात का प्रकरण ही नहीं लाये।

रविवार, 20 नवंबर 2011

अपात्रको भी भगवत्प्राप्ति

                                                        ।। श्रीहरि: ।।

‘‘उदारा: सर्व एवैते’’ का रहस्य- अपात्रको भी भगवत्प्राप्ति
‘उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।’ (गीता 7/18)
ये सभी भक्त
उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है। मेरा स्वरूप ही है। सभी उदार हैं’ इसका भाव निम्न श्लोकों में स्पष्ट किया गया है-
 

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। (गीता 7/16)
‘हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! चार प्रकार के सुकृती अर्थात् उत्तम कर्म
करनेवाले मेरे भक्त मुझे भेजते हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी। इन चारों में अर्थ की कामना वाले यानी स्त्री, पुत्र, धन, रुपये, शरीर, ऐश्वर्य, राज्य-इनकी जो हृदय में कामना करते हैं वे अर्थार्थी हैं। अर्थार्थी से श्रेष्ठ है आर्त, जैसे- द्रौपदी।
 

जिसे काम करने के समय में तो कामना रना न हो यानी काम करते समय कोई इच्छा न हो पर संकट (आपत्ति)-के समय अपनी माँग पेश कर दे वह आर्त है और जिज्ञासु वह है जो भारी-से- भारी सांसारिक आपत्ति प्राप्त हो जाय तो भी उसके लिये भगवान् से प्रार्थना न करे, एकमात्र भगवान् को जानने की और उनकी शीघ्र प्राप्ति की इच्छा करे। जिसे एक ही जिज्ञासा रहे कि परमात्मा की प्राप्ति जल्दी कैसे हो। अपनी आत्मा के उद्धार की अर्थात् भगवान् के दर्शनों की ही जिन्हें जिज्ञासा है, ऐसे पुरुषों में न तो संसार की कामना रहती है न संकट- निवृत्ति की याचना, चाहे कितना ही संकट आये। किन्तु आत्मा- विषय की, परमात्म- विषयकी जिज्ञासा है कि परमात्मा क्या चीज है ? उसकी प्राप्ति कैसे हो ? और चौथा निष्कामी ज्ञानी, जिसे कोई भी कामना नहीं, मुक्ति की भी कामना नहीं। ‘कोई भी कामना नहीं करूँगा तो भी भगवान् की प्राप्ति मुझे हो ही जायगी यह भी कामना नहीं है। नहीं करूँगा तो भी मेरी आत्मा का उद्धार हो जायगा’ यह भी कामना नहीं करता, तात्पर्य यह है कि निष्कामी ज्ञानी कोई भी कामना नहीं करता। ऐसी बात या तो सिद्ध पुरुषों में होती या सिद्ध होने के लायक पुरुषों में होती है। इन चारों प्रकार के भक्तों में जो सबसे बढ़कर भक्त है वह मेरा आत्मा ही है। उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। सभी प्रकार के भक्त उदार हैं, किन्तु ज्ञानी तो मेरा आत्मा ही है। अठारहवें और उन्नीसवें श्लोकों में तथा इसके पहले सत्रहवें भी दिखायी-
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:।।
इन चारों प्रकार के अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी भक्तों में मुझ एक परमात्मा में भक्ति करने वाला जो मेरा अनन्य प्रेम ज्ञानी भक्त है, वह श्रेष्ठ है। ज्ञानी को मैं अतिशय प्यारा हूँ, मेरे सिवा और कहीं किंचिनमात्र भी उसकी प्रीति नहीं है। यदि मुक्ति में भी प्रीति रहती हो तो वह जिज्ञासु ही होता। अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु- इन तीनों से भी ज्ञानी बढ़कर है। उसे मैं अतिशय प्यारा हूँ। भक्ति (भेदोपासना)-में मैं ज्ञानी को अतिशय प्यारा हूँ वह ज्ञानी मुझे अतिशय प्यारा है। जो एक- दूसरे को अतिशय प्रिय है, उसे भगवान् इस श्लोक में दिखा रहे हैं। दोनों की एकता नहीं दिखा रहे हैं। यह दिखा रहे हैं कि यह तो मुझे अतिशय प्यारा है और मैं अतिशय प्रिय हूँ। ‘वह मुझे’ और ‘मैं उसे’-इस भेदोपासना के भावों को यह श्लोक प्रकट कर रहा है। वे कहते हैं कि वह अतिशय प्यारा है तो क्या सब प्यारे नहीं ? ‘उदारा: सर्व एवैते’ परन्तु ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।’ ज्ञानी तो मेरा आत्मा ही है- मेरा स्वरूप ही है। इस आधे श्लोक में यह बात कही कि चारों भक्त ही उदार हैं, किन्तु उनमें ज्ञानी मेरा आत्मा ही है। उदार सभी हैं, यानी श्रेष्ठ सभी हैं। सभी मुझे प्यारे हैं और सबको मैं प्यारा हूँ। इनकी श्रेष्ठता के साथ-साथ उदारता का यह भाव है कि वे उदार चित्तवाले हैं, जैसे किसी मनुष्य का चित्त बड़ा हो और अपना स्वत्व, अपनी शरीर, समय, अधिकार की वस्तु आदि दूसरों के प्रति अर्पण करने में वह बड़ा उदार है। ऐसे वे सब उदार चित्तवाले अपने स्वत्व को मेरे प्रति समर्पण कर रहे हैं, क्योंकि प्रथम वे श्रद्धा-विश्वास करके मुझे भेजते हैं, परन्तु मैं उन्हें पीछे याद करता हूँ।
 

सामान्यतया भगवान् का प्रेम तो सब जगह है ही। श्रीरामजी कहते हैं कि हनुमान् ! मुझे सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं परन्तु अनन्य गतिवाला सेवक मुझे अतिशय प्रिय है-
 

समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ।।
भगवान् श्रीकृष्ण भी कहते हैं-
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वष्योस्ति न प्रिय:। ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्। (गीता 9/29)
सम्पूर्ण भूतों में मैं सम हूँ, मेरा न कोई अप्रिय है न प्रिय। किन्तु जो मुझे भक्ति से, प्रेम से भजते हैं वे मेरे में और मैं उनके हृदय में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट हूँ। दोनों पंक्तियों में ‘अहम्’ यह एकवचन का प्रयोग हुआ है और भक्तों के साथ बहुवचन का प्रयोग हुआ है, क्योंकि भक्त बहुत-से हो सकते हैं; परन्तु भगवान् तो एक ही हैं। उन्होंने मेरे ऊपर विश्वास और भरोसा करके यह उदारता की है। यदि मैं इस प्रकार पहले करता तो मैं उदार कहलाता, किन्तु उन्होंने मुझ पर पहले ही और मैं तो बाद में करता हूँ तथा उनके अनुसार करता हूँ। अधिक तो नहीं करता क्योंकि मुझसे श्रेष्ठ हैं, उदार हैं। मैं हूँ उदारता लेनेवाला और वे हैं उदारता करने वाले। भगवान् का कितना ऊँचा भाव है, किस भाव से अपने भक्तों को वे देखते हैं। और भी खयाल करने की बात है। जब अर्थार्थी के लिये भगवान् का यह भाव है, एक आर्त भक्त के लिये यह भाव है, एक जिज्ञासु के लिए यह भाव है, फिर ज्ञानी की तो बात ही क्या है ?

शनिवार, 19 नवंबर 2011

प्रेम का स्वरुप क्या है?





॥श्रीहरिः॥
वास्तवमेँ प्रेमका स्वरुप अनिर्वचनीय है । कुछ कहा नहीँ जा सकता, परंतु उसका कुछ अनुमान किया जाता है । प्रेम होने पर प्रेम करने के लिए कहा नहीँ जाता । लोभी को यह कहना नहीँ पड़ता कि तुम रुपयोँसे प्रेँम करो । कभी बाप-दादे ने भी पारस आँख से नहीँ देखा; परंतु लोभी को पारस बड़ा प्यारा है । नाम सुनते ही मुख खिल उठता है । इसी प्रकार भगवानमेँ प्रेम होनेपर उसका नाम सुनते ही परम आनंद होता है । लोभी को धनकी और कामीको जैसे सुंदर स्त्रियोँकी बातेँ अच्छी लगती हैँ । इसी प्रकार भगवत्प्रेमीको भगवानकी बातेँ प्राणप्यारी लगती हैँ । जैसे अपने प्रेमी मित्रका नाम सुनते ही उस ओर ध्यान चला जाता है और उसकी बातेँ सुहावनी लगती हैँ, वैसे ही भगवत्प्रेमीको भगवानकी बातेँ सुहाती हैँ । प्रेम और मोहमेँ बड़ा अंतर है । प्रेम विशुद्ध है, मोह कामना से कलंकित है । मोहमेँ स्वार्थ है, वह छूट सकता है, प्रेम स्वार्थरहित और नित्य है । बालकका मातामेँ एक मोह होता है, जिससे वह माताके पास तो रहना चाहता है; परंतु उसके आज्ञानुसार काम करनेके लिए तैयार नहीँ रहता । प्रेममेँ ऐसा नहीँ होता । वहाँ तो अपने प्रेमास्पदको कैसे सुख पहुँचे, कैसे उसका कोई प्रिय कार्य मैँ कर सकूँ, इसी बातकी खोजमेँ प्रेमी रहता है । परंतु ऐसे बहुत कम लोग होते हैँ । भगवान और उनके भक्तोँमेँ ही ऐसे भाव प्रायः पाये जाते हैँ ।

हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
उमा राम सम हितु जग माही । गुरु पितु मातु बंधु कोउ नाहीँ ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती । स्वारथ लागि करहिँ सब प्रीती ॥

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

प्रेम और श्रद्धामेँ अधिक महत्त्व किसका है? प्रेमका या श्रद्धाका ?



॥श्रीहरिः॥

प्रश्न- प्रेम और श्रद्धामेँ अधिक महत्त्व किसका है? प्रेमका या श्रद्धाका ?

उत्तर- श्रद्धा प्रेम को साथ रखती है परंतु प्रेम बिना श्रद्धाके भी हो सकता है। स्त्रीका पतिमेँ, माताका बच्चे मेँ, गाय का बछड़ेमेँ प्रेम होता है, पर वहाँ श्रद्धा नहीँ है। इस प्रेम का कोई महत्त्व नहीँ है। बिना श्रद्धाका प्रेम मूल्यवान नहीँ है। वैसे अपने-अपने स्थानमेँ दोनोँ ही ठीक हैँ। सच्चा प्रेम भगवानमे हो तो वह महत्त्वका है। प्रेमका मूल्य भक्तिके मार्गमेँ है। श्रद्धाकी दोनोँ ही मार्गोँमेँ आवश्यकता है। भक्ति और ज्ञान एक ही चीज है। ईश्वरमेँ परम प्रेम, अनुराग ही असली भक्ति है। इसलिए ऐसा प्रेम ही प्राप्त करना जीवनका चरम लक्ष्य होना चाहिए।

श्रद्धाके बिना किसीका भी काम नहीँ चलता, न भक्तिमार्गवालेका न ज्ञानमार्गवाले का, श्रद्धाके बिना प्रेम भी नहीँ ठहर सकता। श्रद्धा हटी कि प्रेम हटा। श्रद्धा मूल जड़ है।

प्रह्लादको धन्य है, पाहन (पत्थर) से परमेश्वरको प्रकट कर दिया, श्रद्धासे ही निकाला। खम्भेमेँ, सिल-लोढेमेँ, जलमेँ, अग्निमेँ या सूर्यमेँ-किसीमेँ भी श्रद्धा करो कि यह साक्षात् नारायण हैँ या अपनी आत्मामेँ श्रद्धा करो। उसमेँ भी नहीँ हो तो भुगतो, जन्मो और मरो। अरे भाई ! विश्वमेँ किसीमेँ तो श्रद्धा करो। बिना आधारके तो दुर्दशा ही दुर्दशा है। किसीका तो आधार होना चाहिए। जलमेँ नौका का भी आधार होता है तो मनुष्य डूबनेसे बच जाता है। अतः शास्त्ररुपी नौका का, ईश्वरका, महात्माका किसीका तो आधार होना चाहिए। अपने ऊपर कोई एक तो शासन करनेवाला होना चाहिए। स्वतंत्र रहा कि डूबा, फिर परस्त्री, शराब, झूठ, कपट किसकी परवाह करेगा।

'अनुज बधू भगिनी सुत नारी । सुनु सठ कन्या सम ए चारी ॥'
जब शास्त्र ही नहीँ मानेगा तो पाप कौन मानेगा? जितने पाप हैँ शास्त्र ही तो उनका निर्णय करता है। शास्त्रका शासन या महात्माका शासन या ईश्वरका भय होना चाहिए। जैसे रोगी वैद्यकी बात मानेगा, कुपथ्य नहीँ करेँगा तो शीघ्र रोगसे छूट जायगा और यदि वैद्यका शासन न मानकर कुपथ्य करेगा तो मर जायगा। उसका शासन मानेगा तो कुपथ्यसे बचेगा, इसी प्रकार महात्माका शासन मानकर चलेगा तो पतनसे बच जायगा, नहीँ मानेगा तो नीची योनियोँमेँ गिरेगा। इस प्रकार उसका नाश ही होगा। परलोक, ईश्वर और महात्मामेँ श्रद्धा ही पापोँसे बचनेका उपाय है।

भगवानका अस्तित्व न माननेमेँ पाप-अश्रद्धा ही हेतु है। पूर्व संचित पाप ही कारण है। श्रद्धा न भी हो तो भी अच्छे पुरुषोँकी बात मानकर काम करे तो श्रद्धा पैदा हो जाती है। सत्संगमेँ प्रीति न हो तो भी सत्संगमेँ जाते-जाते प्रीति हो जाती है। जैसे विद्यामेँ प्रीति नहीँ होती है तो भी पढ़ते-पढ़ते प्रीति हो जाती है। इसी प्रकार भजन करते-करते ही भजनमेँ और भजनीय प्रभुमेँ प्रेम हो जाता है।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

अंत समयमेँ भगवानका नाम उच्चारणमात्रसे कल्याण हो जाना बताया जाता है।

  प्रश्न-   इसमेँ ऐसी क्या बात है जो एक नामसे ही कल्याण है। 
उत्तर-  भगवानका यह कहना है कि अंत समय मेँ मेरा स्मरण होना ही कठिन है, यदि चेत भी रहा तो इतनी वेदना होती है कि नाम लेना कठिन हो जाता है । दूसरी बात यह है कि यह उसका अंतिम समय है । एक राजा भी यदि किसीको फाँसीकी सजा देता है तो उसको कहता है कि फाँसी तो तुमको होगी ही; परंतु तेरी जो इच्छा हो वह माँग लो । प्रभु तो दयालु हैँ, प्रभु जीवको यह मौका देते हैँ कि इस समय मनुष्य यदि एक बार भी कह दे कि प्रभु मैँ तेरा हुँ तो प्रभु उसे नहीँ त्यागते । दया इतनी है कि स्मरणमात्रसे ही कल्याण हो जाता है । प्रभु न्यायकारी भी हैँ और दयालु भी हैँ । दयाकी भी पराकाष्ठा है । जिस प्रकार कैमरेके सामने जैसी चीज होती है उसी प्रकार उसका चित्र आ जाता है, उसी प्रकार अंत समयमेँ जैसा हाव-भाव होगा, वैसा ही चित्र बन जायगा । अंतिम समयमेँ जिसका भी चिँतन करोगे वही बन जाओगे । गधेका चिँतन करोगे तो गधा बन जाओगे, भगवानका चिँतन करोगे तो भगवानको प्राप्त हो जाओगे ।

अंतकालकी स्मृतिमेँ कैसी विलक्षणता भरी हुई है । इसमेँ प्रभुकी दयालुता, समता तथा न्यायशीलता भरी हुई है । प्रभु विचार करते हैँ कि इस बेचारेका अंत हो रहा है, न जाने अब फिर कब बारी आयेगी इसलिए प्रभुने ऐसा कानून बना दिया जिससे एक क्षणमेँ उद्धार हो जाता है । अंत समय मेँ एक बार स्मरण किया कि काम खत्म ।
                  लगन लगन सब कोइ कहे लगन कहावे सोय।
                  नारायण जा लगनमेँ तन  मन दीजे खोय  ॥
भगवानके लिए सबकुछ त्यागनेको तैयार रहे । प्रभु-प्रेमके सामने किसीको कुछ न समझे । परमात्माकी प्राप्तिमेँ विलम्ब हो रहा है, यह अपनी ही कमी है । अपने विश्वासकी कमीके कारण ही विलम्ब हो रहा है, नहीँ तो भगवान तो सर्वत्र उपस्थित हैँ ही । एक स्त्रीने गलेमेँ हार पहन रखा है, पहन कर भूल गयी और कहने लगी कि मेरा हार खो गया, वही हाल हमारा हो रहा है ।

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

परमात्म-प्रेम कैसे प्राप्त हो?

                                                            
                                      ॥श्रीहरिः॥
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह प्रेम कैसे प्राप्त हो? इस संबंध मेँ गोस्वामीजी ने कहा है- 

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
 मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥

किन्तु शोक है, हमलोगोँका प्रेम तो काञ्चन-कामिनी, मान-प्रतिष्ठामेँ हो रहा है। हम तो सच्चे प्रेमके लिए हृदयमेँ कभी कामना ही नहीँ करते। जबतक प्रेमके लिए हृदय तरस नही जाता, व्याकुल नहीँ होता, तबतक प्रेमकी प्राप्ति हो भी कैसे सकती है? अभी तो हमलोगोँ का कामी मन नारी-प्रेममेँ ही आनंदकी उपलब्धि कर रहा है। अभी तो हमलोगोँका लोभी चित्त काञ्चनकी प्राप्तिमेँ ही पागल है। अभी तो हमलोगोँका चञ्चल चित्त मान-बड़ाई के पीछे मारा-मारा फिरता है। जबतक हमलोगोँका यह काम और लोभ सब ओरसे सिमटकर एक मात्र प्रभुके प्रति नहीँ हो जाता, तबतक हम प्रभुके प्रेमको प्राप्त भी कैसे कर सकते है?

प्रेमी मूक रहते हुए भी भाषण देता है। मानो उसका अंग-अंग बोलता है। उसके सभी अवयवोँसे मानो एक शुद्ध संकेत, एक निर्मल ध्वनि निकलती है। प्रेमी उपदेश देने नही जाता, वह क्या बोले, कैसे बोले? गोपियोँने प्रेमकी शिक्षा किसे और कब दी थी? भरतजी ने भक्तिका उपदेश कब और किसे दिया? उनके चरित्र उपदेश देते रहे और देते रहेँगे। प्रेममेँ जिस अनन्यता और आत्मसमर्पणकी सराहना की गयी है, उसकी सजीव मूर्ति गोपियाँ है। इसी प्रकार रामायण मेँ उसके प्राणस्वरुप प्रेम-मूर्ति श्रीभरतजी है।

यह हमारा शरीर ही क्षेत्र है। इस खेतमेँ कर्मरुप जैसा बीज बोया जायगा वैसा ही फल उपजेगा। बीज तो परमात्माका प्रेमपूर्वक ध्यानसहित जप है। परंतु जलके बिना यह बीज उग नहीँ सकता। वह जल है हरि-कथा और हरि-कृपा। खेतमेँ गेहूँ बोनेसे गेहूँ और आम बोनेसे आम उपजता है। इसी प्रकार हृदयरुप खेतमेँ राम ही उपजेगा। हम प्रेमपूर्वक भगवानके ध्यान और जपका बीज बोयेँगे तो फलरुपमेँ हमेँ प्रेममय भगवान ही मिलेँगे। प्रेममय भगवानका साक्षात्कार ही इस बीजका फल है। साधारण बीज तो धूलिमेँ पड़कर नष्ट भी हो जाता है; परंतु निष्काम रामनामका वह अमर बीज कभी नष्ट नहीँ होता। जल है हरि-कथा और हरि-कृपा, जो संतोँके संगही प्राप्ति होती है। उस हरिकथा और हरिकृपासे ही हरिमेँ विशुद्ध प्रेम होता है, अतएव प्रेम की प्राप्तिका उपाय सत्संग ही है।

प्रभुमेँ हमारा प्रेम कैसा हो? श्रीरामका उदाहरण लीजिए। भगवान श्रीराम लता-पत्तासे पूछते हैँ-'तुमने मेरी सीताजीको देखा है?' गोपियोँको देखिये, वे वन-वन 'कृष्ण-कृष्ण' पुकार-पुकारकर अपने हृदयधन को खोज रही हैँ। जितनी ही अधिक तीव्र उत्कण्ठा प्रेममेँ होती है उतना ही शीघ्र प्रेममय ईश्वर मिलते है।

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

जीव ईश्वरका अंश है।

जीव ईश्वरका अंश है।जैसे लड़का पिताका अंश होता है,ईश्वर हमारा पिता है और प्रकृति ईश्वरकी शक्ति है। ईश्वरकी शक्ति होनेसे वह हमारी माता है।ईश्वर पिता है और प्रकृति शक्ति मेरी माता है-

          माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दनः।
          बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्॥
    
 कमलादेवी माता है।इन्हेँ चाहे ईश्वरकी शक्ति कहो या लक्ष्मी और जनार्दन पिता हैँ।जनार्दनको भगवान कहो या विष्णु।भगवान ईश्वर हैँ तो वह ईश्वरी।भगवान हुए हमारे पिता और वे हुई हमारी माता।गीता मेँ भी ऐसी बात है भगवानने गीताके चौदहवेँ अध्यायमेँ कहा है कि यह जो महत ब्रह्म है उसका नाम प्रकृति है।प्रकृति गर्भको धारण करनेवाली माता है और मैँ बीजको देनेवाला पिता हूँ।प्रकृति सबकी योनि है और मैँ बीजको देनेवाला पिता हूँ।इससे सारे संसारकी उत्त्पत्ति होती है।इससे यह बात सिद्ध हुई कि सारा संसार प्रजा है,भगवानकी संतान हैँ।हम सभी जितने चराचर प्राणी है,प्राणधारी है,देहधारी हैँ-ये सभी भगवानकी संतान हुए और भगवान हुए हमारे पिता तथा उसकी जो प्रकृति शक्ति है वह हुई हमारी माँ।हमलोग परस्परमेँ हुए भाई।इसलिए सबको भाई समझना चाहिए।सब कुछ- तीनोँ लोक परमात्माका है।सभी परमात्माके रचे हुए हैँ।परमात्मा ही मालिक है।इस वास्ते तीनो लोक परमात्माका होनेसे और परमात्मा हमारे पिता हैँ,इस वास्ते तीनो लोक ही हमारा स्वदेश होगया। यह नहीँ कि भारतवर्ष ही हमारा स्वदेश है बल्कि तीनो लोक ही हमारा स्वदेश है।शंका होती है,मानलो यदि एक आदमी भारतवर्षकी उन्नति करता है और यूरोप,अमेरिका,अफ्रीका आदि की अवनति हो उसकी अपनेको कोई चिँता नहीँ? क्योँकि भारतवर्ष ही हमारा स्वदेश है ठीक है यह भी बुद्धि है,किँतु यह एकदेशीय बुद्धि है।जिनका यह भाव है कि अफ्रिका,अमेरिका,यूरोप-ये सब हमारे ही देश हैँ,क्योँकि हम सबलोग एक भगवानकी संतान हैँ और हम सभीके पिता एक ही हैँ।उसे चाहे मुसलमान भाई अल्लाह,खुदा कहेँ;अंग्रेज GOD कहेँ,आर्यसमाजी भाई ॐ कहेँ और सनातनधर्मी श्रीराम,श्रीकृष्ण कहेँ।उस परमात्माके बहुत से नाम हैँ,किँतु परमात्मा तो एक ही है,अनेक नहीँ है।इस वास्ते सारे दुनियामेँ मनुष्य के ही नहीँ बल्कि जितने प्राणी है उन सभी जीवमात्र के माता-पिता, प्रकृति-पुरुष ही हैँ।प्रकृति पुरुषसे सारे जीवोँकी उत्त्पत्ति हुई।

-श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी''
'इसी जन्म मेँ परमात्मा प्राप्ति' नामक पुस्तक से,पृष्ट सं॰138

रविवार, 6 नवंबर 2011

संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम होनेका उपाय



                                     ॥श्रीहरिः॥

अपने दैनिक जीवनमेँ उपर्युक्त बातोँको किस प्रकार काममेँ लाया जाय-इसके
लिए नीचे लिखी हुई तीन बातोँपर विशेष ध्यान देना चाहिए-

(1) जब हम रात्रिमेँ सोने लगेँ, तब उस समय हमेँ उचित है कि हम भगवानके
नाम,रुप,गुण,प्रभावको स्मरण करते-करते ही शयन करेँ। इससे रातमेँ प्रायः
बुरे स्वप्न नहीँ आते और हमारा वह शयनकाल भी साधनकालके रुपमेँ ही परिणत हो सकता है।


(2) दिनमेँ कार्य करते समय यह समझना चाहिए कि मैँ जो कुछ कर रहा हूँ,भगवानका ही काम कर रहा हूँ और भगवानकी आज्ञासे भगवानके लिए ही कर रहा हूँ एवं ये जड़चेतनात्मक सब पदार्थ भगवानके है और मैँ भी भगवानका हूँ तथा भगवान मेरे है और वे सबमेँ व्यापक है; इसलिए सबकी सेवा भगवानकी ही सेवा है। तथा व्यवहार करते समय स्वार्थत्याग, संपूर्ण प्राणियोँके प्रति हितैषिता, उदारता,समता,स्वाभाविक दया-इनपर विशेष ध्यान रखना चाहिए।इससे व्यवहार स्वाभाविक ही बहुत उच्चकोटि का होने लग जाता है।


इससे भी बढ़कर एक भाव यह है कि जो भी क्रिया करे, उसे अहंकार और अभिमानसे रहित होकर करे और यह समझे कि मेरे द्वारा जो कुछ भी क्रिया होती है,वह भगवान ही करवा रहे हैँ,मैँ तो केवल निमित्तमात्र हूँ।इस प्रकारके भावसे होनेवाली क्रियामेँ कभी दुर्गुण,दुराचार,दुर्व्यसनकी गुंजाइश नहीँ रहती।यदि उसमेँ दुर्गुण,दुराचार,दुर्व्यसन हो तो समझना चाहिए कि उसकी
क्रिया होनेमेँ भगवानका हाथ नहीँ है,कामका हाथ है।गीता मेँ अर्जुनके द्वारा यह पूछने पर-


अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥
(3.36)

'कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्कारसे लगाये हुएकी
भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?'

भगवानने कहा-


काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥
(गीता 3.37)

'रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है,यह बहुत खानेवाला अर्थात भोगोँसे कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है; इसको ही तुम इस विषयमेँ वैरी जानो।'


(3) एकांत मेँ बैठकर साधन करते समय भी प्रथम मन-इंद्रियोँको वशमेँ करना चाहिए।मनको वश मेँ करनेके लिए अभ्यास और वैराग्य ही प्रधान है।भगवानने गीतामेँ बतलाया है-


असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
(6.35)

'महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनतासे वशमेँ होने-वाला है; परंतु कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्यसे वशमेँ होता है।'
मनको वशमेँ करलेनेपर इंद्रियोँका वशमेँ होना उसके अन्तर्गत ही है।मन वशमेँ होनेके बाद श्रद्धा-प्रेमपूर्वक भगवानके नाम और स्वरुपका स्मरणरुप साधन करना चाहिए; क्योँकि मनको वशमेँ किये बिना साधन होना सुगम नहीँ है और साधन करनेसे भगवानकी प्राप्ति होती है। भगवान कहते हैँ-
'असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मेँ मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥
(गीता 6.36)

'जिसका मन वशमेँ किया हुआ नहीँ है, ऐसे पुरुषद्वारा योग (भगवत्-प्राप्ति) दुष्प्राप्य है और वशमेँ किये हुए मनवाले प्रयत्नशील-पुरुषद्वारा साधनसे उसका प्राप्त होना सहज है-यह मेरा मत है।'


तथा भगवानने आगे सब साधनोँमेँ श्रद्धापूर्वक भगवानके भजन-चिँतनरुप भक्तिके साधनको ही श्रेष्ठ बतलाया है-


योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
(गीता 6.47)

'संपूर्ण योगियोँमेँ भी श्रद्धावान योगी मुझमेँ लगे हुए अंतरात्मा से
मुझको निरंतर भजता है,वह योगी मुझे परमश्रेष्ठ मान्य है।'



अथवा एकांतमेँ बैठकर संपूर्ण कामनाओँका त्यागकर मनसे इंद्रियोँको वशमेँ करके और संसारसे उपराम होकर मनको परमात्मामेँ लगा देना चाहिए।परमात्माकी प्राप्तिका यह भी एक उत्तम प्रकार है।भगवानने स्वयं गीता मेँ बतलाया है-


संकल्पप्रभवान्‌ कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥
शनैः शनैरुपरमेद्‌ बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्‌॥
(गीता 6.24-25)

'संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली संपूर्ण कामनाओँको निःशेषरुपसे त्यागकर और मनके द्वारा इंद्रियोँके समुदायको सभी ओरसे भली-भाँति रोककर क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरतिको प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा मनको परमात्मामेँ स्थित करके परमात्माके सिवा और कुछ भी चिँतन न करे।'


एवं-
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌।
ततस्ततो नियम्येतदात्मन्येव वशं नयेत्‌॥
(गीता 6.26)

'यह स्थिर न रहनेवाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि निमित्तसे संसारमेँ विचरता है,उस-उस विषयसे रोककर यानी हटाकर उसे बार-बार परमात्मामेँ ही निरुद्ध करे अर्थात् परमात्मामेँ ही लगावे।'

अतएव संसारके विघ्नोँका नाश होकर परमात्माकी प्राप्तिके उद्देश्य से उपर्युक्त प्रकारसे संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम होनेके लिए विशेष कोशिश करनी चाहिए।


शनिवार, 5 नवंबर 2011

संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम होनेका उपाय

श्रीभगवानकी प्राप्तिकी इच्छावाले पुरुषोँको संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम हो-इसके लिए विशेष चेष्टा करनी चाहिए।साधन मेँ विक्षेप,आलस्य,भोग,प्रमाद आदि अनेक विघ्न हैँ, उनमेँ मनकी चंचलता अर्थात विक्षेपऔर आलस्य-ये दो प्रधान है; किँतु संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम होनेपर इन सबका अपने-आप ही विनाश हो सकता है।अतः संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ प्रेम होनेके लिए ही विशेष प्रयत्न करनेकी आवश्यकता है।
संसारसे वैराग्य होनेका उपाय है-संसारको नाशवान्,क्षण-भङ्गुर,दुःखरुप,घृणित,हानिकर और भयदायक समझना,वैराग्यवान पुरुषोँका संग करना,वैराग्यविषयक पुस्तकेँ पढ़ना और चित्तमेँ वैराग्यकी भावना करना।इनसे संसारमेँ वैराग्य हो जाता है।

भगवानमेँ प्रेम होनेका उपाय है-
भगवानके नाम,रुप,लीला,धामके गुण,प्रभाव,तत्त्व रहस्यकी बातोँको सुनना,पढ़ना और मनन करना, भगवानमेँ जिनका प्रेम है,उन पुरुषोँका संग करना; भगवानसे सच्चे हृदयसे करुणाभावपूर्वक गद्गदकण्ठ हो स्तुति-प्रार्थना करना; 'भगवान मेरे है और मैँ भगवानका हूँ'-इस प्रकार भगवानके साथ अपना नित्य-संबंध समझना; मनसे भगवानका दर्शन,भाषण,स्पर्श,वार्तालाप और चिंतन करना तथा हर समयनिष्कामभावसे भगवानके नाम-रुपको स्मरण रखना।ऊपर बतलायी हुई इन सभी बातोँपर श्रद्धा-विश्वास करके उनको काममेँ लानेसे बहुत शीघ्र भगवानमेँ प्रेम हो सकता है।
जब साधकका संसारसे वैराग्य और भगवानमेँ अनन्य प्रेम हो जाता है,तब फिर दुर्गुण,दुराचार,दुर्व्यसन,सांसारिक संकल्प, आलस्य, प्रमाद, भोगेच्छा आदि सब दोषोँका नाश होकर उसे भगवानका यथार्थ ज्ञान हो जाता है और उसमेँ स्वाभाविक ही समता आ जाती है; फिर उत्तम गुण तो उसमेँ अपने-आप ही आ जाते हैँ तथा उसके द्वारा होनेवाली संपूर्ण क्रियाएँ भी उत्तम-से-उत्तम होने लगती हैँ।उसे परम शांति और परम आनंदका अनुभव होता रहता है।इसलिए ऐसा पुरुष कभी संसारके विषय-भोगोँको और कुसंगको पाकर भी उनमेँ नहीँ फँसता।
-श्रद्धेय जयदयालजी गोयंदका 'सेठजी'