भक्ति का प्रभाव
भगवान् की भक्ति की बड़ी महिमा है | भक्ति का अंतिम फल प्रेम है | भगवान् का नाम जपने के समय स्वरुप का निरंतर ध्यान रखना चाहिये | निराकार के उपासक को ख्याल रखना चाहिये की परमात्मा निराकार आकाश की भांति सब भूतो में व्यापक है | जो साकार का उपासक है , वह सर्व शक्तिमान परमात्मा को अपने साथ में देखकर ध्यान करे |
भक्ति से सब दोषों का नाश स्वत ही हो जाता है |जबही नाम हिरदे धरयो भयो पाप को नाश |
जैसे चिनगी अग्नी की परी पुराने घास ||
राम भक्ति मनी उर बस जाके | दुःख लवलेश न सपनेहु ताके ||
बसही भगती मनी जेहि उर माहि | खल कामादि निकट नहीं जाही ||
भीतरी और बाहरी दुष्ट उसके अंदर नहीं जाते | राज्य के सिपाही हमे तंग करते है, पर राज्य के हाकिम के सामने हाथ जोड़े खड़े रहते है | काग्भुसुंडी जी के आश्रम में चार योजन तक यह दोस नहीं आते थे | वह माया और माया का कटक पास में नहीं जाता था | उनके आश्रम की ऐसे महिमा थी |जैसे चिनगी अग्नी की परी पुराने घास ||
राम भक्ति मनी उर बस जाके | दुःख लवलेश न सपनेहु ताके ||
बसही भगती मनी जेहि उर माहि | खल कामादि निकट नहीं जाही ||
गरल सुधासम अरी हित होई | ते मणि बिनु सुख पाव ना कोई ||
भक्ति का ऐसा प्रभाव है | प्रलहाद के लिए विष अमृत बन गया | मीराबाई के लिए विष अमृत बन गया , इस कलिकाल में भक्ति का साधन सुगन और सरल है | सबको भगवान् की भक्ति करनी चाहिये | भक्ति में 'भज' धातु है | 'भज' मने भजन करना सबसे बढ़ कर भक्ति है | भगवान् कहते है --सोई सेवक प्रियतम मम सोई | मम अनुसाशन मानइ जोई ||
अर्जुन भगवान् की आज्ञा का पालन करने वाला था, तभी भगवान् ने 'भक्तोअसि मे सखा चेति ' कहा | भगवान् ने पूछा --क्या तुम्हारा मोह नस्ट हुआ ?अर्जुन ने कहा --
नष्टो मोह स्मृति लभ्ध्वा त्वत् प्रसादान्मयच्युत |
स्थितोअस्मि गतस्ह्न्देःह करिष्ये वचनं तव || (गीता १८|७३)
हे! अच्युत आपकी कृपा से मेरा मोह नास्त हो गाय है और मैने स्मृति प्राप्त कर ली है, अभ मै संसय रहित होकर स्तिथ हु , अत आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |स्थितोअस्मि गतस्ह्न्देःह करिष्ये वचनं तव || (गीता १८|७३)
में आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ऐसा कहा | यही सबसे बढ़कर भगवान् की भक्ति है | सेवा, आज्ञा पालन , भगवान् के विग्रह का मानसिक पूजन करना --यह सब भक्ति का अंग है |
मन्मना भव मध्भक्तो मधाजी मां नमस्कुरु | (गीता ९|३४)
इस स्लोकार्ध में चार बाते है | मन से भगवान् की जप, हाथो से पूजा और सरीर से सासटंग प्रणाम -यह भक्ति के चार प्रधान अंग है | जो ऐसा करता है वह निश्चय ही मुझे प्राप्त होता है | इनका और अधिक विस्तार करे तोह भक्ति के नौ अंग हो जाते है -
श्रवणं कीर्तनं विष्णो स्मरणं पाद सेवनं |
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्म निवेदनम् ||
'भगवान् विष्णु के नाम, रूप, गुण और प्रभावादी का सरवन, कीर्तन और स्मरण तथा भगवान् की चरण सेवा , पूजन और वंदन कर देना-येः नौ प्रकार की भक्ति है |' (श्री मध्भागवत ७|५|२३)अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्म निवेदनम् ||