※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

भक्ति का प्रभाव ---२

|| श्री हरी ||

भक्ति का प्रभाव ---२
यह प्रलहाद जी ने पिता के प्रति कहा था | इन  सबका  फल है भगवान् में प्रेम | भगवान् केवल प्रेम देखते है | बाहर का दिखावा नहीं देखते |अत एव जिस, किसी प्रकार से हो, प्रेम होना चाहिये | प्रेम में दंभ, कपट, पाखंड नहीं ठहीरते | यदि ये हो तोह दूर भाग जाते है | आसुरी सम्पदा के कोई लक्षण नहीं ठहर सकते |
तुलसीदास जी ने कहा है -  
  रामही केवल प्रेम प्यारा | जान लहू जो जाननीहारा  ||
'भक्तिप्रियो माधव:" भगवान् प्रेम से मिलते है | प्रेम हो गया तोह भगवान् पीछे पीछे फिरते है , भगवान् प्रेमी के अधीन हो जाते है | 
सुमिरि पवनसुत पवन नामु | अपने बस करी राखेउ  रामू ||
भगवन का कथन है -
ये यथा मां प्रप्धेन्ते तत्स्थेव भजामहं | (गीता ४|११)
हे अर्जुन ! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते है ,मैं उनको उसी प्रकार भजता हु | भगवान् प्रेम से वश में हो जाते है और प्रेम से मिलते है |
हरी व्यापक सर्वत्र  सामना | प्रेम से प्रगट होई मैं जाना ||
हृधय दियासलाई की पेटी है और भगवान् का नाम दियासलाई है | उसको घिसने से भगवान् प्रगट हो जाते है | एक वेयधी  भक्ति है और दूसरी प्रेम लक्षणा , इन सबका फल प्रेम है | प्रेमरस में मग्न होने पर अपने आपको होश नहीं रहता | जब ऐसे प्रेम में मस्त हो जाता है तभ प्रेमी, प्रेम और प्रेमास्पद तीनो एक हो जाते है | 
 
संसार का स्नेह प्रेम नहीं आसक्ति है ,लगाव,लाग,राग है और वह प्रेम बिलकुल विसुध  है अनन्य और पूर्ण है | प्रेम का स्वरुप उतरोतर बढ़ता है | प्रभु के गुण, प्रभाव,स्वरुप को देख देख कर प्रेम बढ़ना चाहिए |सारे संसार को आह्लादित करने वाले भगवान् को अपने आचरण, प्रेम के व्यवहार से मुग्ध कर देना-येही भगवान् में रमण करना है | नेत्रों से देखना , हाथो से सेवा करना, वाणी  से गुणगान करना , कानो से उनके नाम,गुण प्रभाव को सुनना, भुद्धि से उनका निश्चय करना ,मन से मननं करना -येः सब इन्द्रिय द्वारा रमण है |
 
 उनके गुणों को याद करके दरसन,स्पर्श,भाषण ,चिंतन करना --यह सब अमृतमय है उनको सुन सुनकर मुग्ध होवे| ऐसा माने , मानो अमृत का पान कर रहे है, ऐसा अनुभव करे येः रसास्वाद लेना है | भगवान् प्रेम के मूर्ति है | प्रेमी, प्रेमास्पद और प्रेम : भक्ति, भक्त और भगवान् तीनो एक ही है | जाती से एक है और स्वरुप से अलग अलग है | तीनो ही चेतन है | पहले तोह यह मानसिक होता है  फिर असली प्राप्ति रूप  फल प्राप्त हो जाता है |
भगवान् कहते है -
मच्चिता मदगतप्राणा बोध्यन्त: परस्परं |
कथ्यन्तस्य्च मां नित्यं तुस्यन्ती च रमन्ती च ||
निरंतर मुझमे मन लगाने वाले और मुझमे ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन मेरी भक्ति के चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरंतर संतुस्ट होते है और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण है |
इश प्रकार प्रेमपूर्वक भगवान् के भजन का फल है भगवान् के प्राप्ति | भगवान् मिल जाते है उस समय क्रीडा और भी अलोकिक हो जाती है | उस समय भगवान् के सब चेष्टा भक्त को आह्लादित करने के लिए होती है और भक्त की चेष्टा भी भगवान् को आह्लादित करने के लिए होती है अत एव हमारी सब चेष्टा भगवान् को मुग्ध करने वाली हो और भगवान् के सब चेष्टाओ को देख देख कर मुग्ध  होना चाहिए |
भगवान् के शरण होना सबसे उत्तम बात है | भगवान् के शरण होने पर सब क्रिया और अपने आप का भगवान् को समर्पण होता है, फिर उसके द्वारा कोई पाप कर्म क्रिया में नहीं आता | उसकी जानकारीमें  कोई पाप कर्म नहीं बनता | स्वाभाव दोष के कारण यदि पाप बन भी जायेगा तोह उसका दंड नहीं मिलता | उसके लिए भगवान् के यहाँ छूट है ,अत एव हर प्रकार से भगवान् के शरण होना चाहिए |
 
सेठ श्री जयदयाल जी गोयन्दका ...साधन की आवस्यकता ...गीताप्रेस गोरखपुर ....पुस्तक कोड ११५०

नारायण   !!!!!!!!!        नारायण  !!!!!!!!!!     नारायण!!!!!!!!!!!!