※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

मन, इन्द्रियोके संयम की आवश्यकता



 प्रवचन तिथि-----ज्येष्ठ शुक्ल ८, संवत् २००२, प्रात: काल वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम ! पिछले का शेष भाग...........


गीता बताती है--------
यततो     ह्यपि  कौन्तेय  पुरुषस्य  विपश्चित: !
इन्द्रियाणि  प्रमाथीनि हरन्ति   प्रसभं    मन:  !!
                                              ( गीता २ / ६० )
हे कौन्तेय ! यत्न करते हुये पुरुष की इन्द्रियाँ मन को बलात् हर लेती है ! कैसा पुरुष है ? विवेकी, मुर्ख नहीं समझदार है, साधक है ! इन्द्रियाँ कैसी है ? प्रमथन स्वभाव वाली ! प्रमथन कहते हैं जैसे एक हँडिया में दही होता है, मंथन करते है तो सारे दही में हलचल मच जाती है, मक्खन निकल आता है !
      इन्द्रियाँ विवेकी आदमी के मन को भी हरण कर लेती है, इसलिये भगवान कहते हैं, पहले इन्द्रियों को वश में करना चाहीये ! इन्द्रियाँ और मन दोनों मिल जाते है तो बुद्धि को भी हर लेते हैं !
इन्द्रियाणां  हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते ! तदस्य   हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि !!
                                                                                                    ( गीता २ / ६७ )
       क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे हि विषयों में विचरित हुयी इन्द्रियों  में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय इस आयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है !

        यहाँ जल क्या है ? विषय भोगरुपी जल है, बुद्धिरूपी नौका है, इन्द्रियाँ और मन हरने वाली वायु है, नौका में लंगर होता है, उसे किनारे पर गाड दिया जाय तो वायु कुछ नहीं कर सकती ! इसी प्रकार परमात्मा के स्वरुपरूपी किनारे पर बुद्धिरूपी लंगर गाड़ दिया जाय तो बुद्धि स्थिर हो जाय !
        इसलिये बुद्धिको शुद्ध बनाना चाहिये ! इसकी चंचलता मिटानी चाहीये और बुद्धि में जो अज्ञान है उसेन मिटाना चाहीये !

इनके लिये क्या साधन करें ?
          मन और बुद्धि एक ही धातु है ! मन और बुद्धि में मल , विक्षेप और आवरण का दोष है ! आवरण का दोष मिटने के लिये बुद्धि को तीव्र बनाना चाहीये ! आध्यात्म विषयक ग्रन्थो का केवल पठन ही नहीं मनन भी करना चाहीये !उन्हें समझने सें बुद्धि  तीक्ष्ण होती है ! व्यापार करने वाले की व्यापार में बुद्धि तीव्र हो जाती है ! यहाँ संसारविषयक तीक्ष्णता काम नहीं देती, अपितु आध्यात्म विषयक तीक्ष्णता काम देती है ! लौकिक तीक्ष्णता सें काम नहीं चलता ! इसलिये एक तो सत्-शास्त्रोंका मनन चाहीये ! इससे आवरण-दोषका विनाश होता है !
         
          दूसरा दोष चंचलता का है ! उसे दूर करने के लिये परमात्मा का ध्यान करना चाहीये ! मन को एक देशमें बाँधना चाहीये ! ध्यान धारणा से मन स्थिर होता है ! भगवान् कहते हैं मन बड़ा चँचल है उसे स्थिर करने के लिये अभ्यास करना चाहीये !

           परमात्मा के स्वरुप में बार-बार मनको लगाने का नाम ही अभ्यास है ! अभ्यास से चित वश में होता है ! दूसरा उपाय बताया वैराग्य ! वैराग्य होने से चंचलता मिट जाती है ! संसार के पदार्थों आसक्ति नष्ट होने से वैराग्य होता है ! राग क्यों है ? उसमें सुख बुद्धि है ! जिन पदार्थों में दु;ख बुद्धि होती है उनमें राग नहीं है ! सुखमें ही अनुकूलता होती है ! अनुकूल वृति और प्रतिकूल वृति मानी हुयी है, जो वस्तु मानी हुयी होती है वह अज्ञात होती है !अज्ञता, मूर्खता एक ही बात है, मूर्खता मिटानी चाहीये ! वह ज्ञान से मिटती है ! ज्ञान सत्संग सें तथा सत्शास्त्रों के अध्ययन से होता है ! आवरण का दोष मिट जायेगा तो विक्षेप का दोष स्वत:ही मिट जाएगा !

            मल का दोष मिट जायेगा तो चंचलता स्वत:ही मिट जायेगी ! मल दोष के नाशके लिये लोगों का उपकार करना चाहीये ! उपकार मान, बड़ाई, कीर्ति के लिये नहीं , अपितु निष्काम भाव सें करना चाहीये ! स्वार्थ को लेकर जो उपकार किया जाता है ! उससें तो वह श्रेष्ठ है जो मान बड़ाई के लिये करता है ! जो मान भी नहीं चाहता है, अन्त:करण की शुद्धि चाहता है, वह उससे श्रेष्ठ है ! उससे भी वह श्रेष्ठ है जो अपने कल्याण के लिये करता है ! जो भगवान् के भक्त होते हैं उनके तो सारे कर्म निष्कामभाव से ही होते हैं ! हमें भी अपना कर्तव्य समझ  करदूसरों की सेवा करनी चाहिये ! नामजप भक्ति का अंग है ! किन्तु क्रिया साध्य होने से हम इसें भी कर्म कहते हैं !संसार से जो मन इन्द्रियोंका सम्बन्ध है उसे तोड़ डालना तप है ! धर्म पालन के लिये हम कष्ट सहें तो हमारा अन्त:करण  शुद्ध हो जायेगा ! अन्त:करण के दोष जलाने के लिये कई उपाय है---प्राणायाम. निष्काम भाव, नामजप, तिर्थोंका सेवन, तप, ज्ञान,सत्संग, गुणकीर्तन, नामकीर्तन- इन साधनों का परस्परमें बड़ा सम्बन्ध है !यह एक दूसरे के सहायक है ! जब अभ्यास तेज होता है तो स्वत: वैराग्य होता है,वैराग्य होता है तो अभ्यास होता है, इन्द्रियों के संयम सें वैराग्य होता है ! अन्त:करण में राग-द्वेष नहीं रहते तो मन की चंचलता नहीं रहती एक गुण दूसरे गुण का सहायक है ! प्रधान बात यह है की पापों के नाश के लिये लोगों की सेवा करनी चाहीये तथा नाम का जप और कीर्तन करना चाहीये

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में