प्रवचन-तिथि-ज्येष्ठ शुक्ल ११, संवत २००२, सांयकाल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम !
कंचन तजना सहज है सहज तियाका नेह !
मान बड़ाई इर्ष्या दुर्लभ तजना एह !!
यध्यपि कंचन और कामिनी का त्याग बड़ा कठिन है, फिर भी साधन करने सें उनका त्याग हो सकता है, किन्तु मान, बड़ाई, इर्ष्या का त्याग होना कठिन है ! मान बड़ाई. इर्ष्या के त्याग की विशेष चेष्टा करनी चाहीये ! मान-बड़ाई के त्याग की शिक्षा इस समय मिलनी कठिन है ! मान-बड़ाई अमृत के सामान है इस प्रकार की शिक्षा मिलती है ! वचनोंके द्वारा यह शिक्षा मिल सकती है कि मान, बड़ाई, काकविष्टा के समान है, किन्तु कार्यरूपमें शिक्षा नहीं मिलती !
जब तक मान.बड़ाई कि इच्छा है, तबतक लोगोंका हित नहीं हो सकता ! भगवान् से मिलना हो तो मान-बड़ाई को तिलांजलि देनी चाहीये ! जबतक मनुष्य अपने-आपको पुजवाना चाहता है, तबतक असली तत्व नहीं प्राप्त होता ! यह बड़ी बुरी आदत है और प्राय: सबमें है !सिद्धमें तो नहीं होती ! किन्तु उच्चकोटिके साधक में भी यह रहती है ! उसे प्राप्त होने पर दू:ख होता है, इसे विघ्न समझता है !
जब तक मनुष्य नाम चाहता है, तब तक वह लौकिक हित तो कर सकता है पारलौकिक नहीं ! हर एक भाईयोंको इस पर विशेष ध्यान देना चाहीये ! मान-बड़ाई को मन से फैंकना चाहीये ! फागुन के महिनेमे होलीके अवसर पर कोई भी अपने ऊपर कीचड़ नहीं गिराना चाहता !इसी प्रकार मान-बड़ाई से डरना चाहीये ! हर एक भाईको इस बातका ध्यान रखना चाहीये, अपमान और निन्दाको अमृत के समान समझकर पी जाना चाहीये ! भीतरमें बार-बार हर्षित होना चाहीये, सिद्धांत की बात यह है ! अच्छे साधकों में भी मान-बड़ाई का त्याग नहीं होगा तो यह शिक्षा हमें किससे मिलेगी !
इसी प्रकार भोग, आलस्य और स्वार्थ बहुत ही भारी हानिकर चीजें हैं ! रुप्योंके लोभके कारण ही मनुष्यमें प्राय: झूठ और चोरी घटती है ! जबतक झूठ, कपट, बेईमानी घटती है, तब तक परमात्मासे बहुत दूर है !
इसी प्रकार जब तक राग-द्वेष हैं तबतक परमात्मासे बहुत दूर है! हर एक काममें स्वार्थका त्याग करना चाहीये ! संसार में वैराग्य होनेसे और परमात्मा में प्रेम होने से या यों कहो परमात्मा का भजन-साधन होने से यह सारी बातें स्वत: ही हो जाती है !
ज्ञानमार्ग में देहाभिमान कम होने से सहज हो जाती है, भक्ति के मार्ग में बहुत सहज है, वैराग्य उपरति सबमे सहायक है ! शीघ्र कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को तो वैराग्य उपरति का खूब ही सेवन करना चाहीये!
भगवान्के विरह में व्याकुल होना चाहीये ! संयोग,वियोग, दोनों ही लाभ की चीजें है ! तद्विस्मरणे परमव्याकुलता !
यदि विरह व्याकुलता हो तो भगवान् दूर रहते हुये भी नजदीक है, विरह व्याकुलता नहीं हो तो नजदीक रहते हुये भी दूर है !
अबतो सारा समय साधन में ही बिताना चाहीये! दूसरी चीज को पाई भर भी आदर नहीं देना चाहीये ! भक्ति के मार्ग में देहाभिमान से रहित हो जाये ! परमात्मा के ध्यान में ऐसा मस्त होना चाहीये, जैसे ब्रह्म-प्राप्त पुरुष मस्त रहता है, सारा जीवन ध्यान में ही बितावें !
सबमे यह बात हो रही है ! परशुरामजी ने विश्वामित्रजीसे कहा- आप इसे मेरा प्रभाव बतायें ! तब लक्ष्मणजी ने कहा आप स्वयं ही बता रहें है ! हमलोग तो गुणों को दूसरों के द्वारा प्रकाशित करवाते हैं !
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में ....