※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

भक्त की महिमा......1

|| श्री हरिः || 
भक्त की महिमा
उपदेश, आदेश देने का मैं पात्र नहीं, न मेरी योग्यता ही है, न मुझे संस्कृत और हिंदी भाषा का ज्ञान है | वीर राघवाचार्य जी महाराज ने मेरे विषय में बडाई  के  शब्द कहे, वह वास्तव में मेरे में नहीं घटती | मैं जो आपकी सेवा में निवेदन करता हूँ , उसका आपके ऊपर असर नहीं पड़े तो वास्तव में मैं वक्ता के लायक नहीं | वास्तव में विरक्त महात्मा हो तो उनके वचनों  का असर  पड़ता है | मैं यदि वास्तव  में अच्छा महात्मा होता तो मेरे दर्शन,स्पर्श, वार्तालाप से असर होता | मैं तो यही समझ कर चर्चा करता हूँ की अगर पांच आदमी मिल कर भगवत्चर्चा करे तो अच्छा है | आपका मेरा ऊपर प्रेम है ,उसका बदला मैं नहीं चुका सकता | मैं आपका आभारी हूँ, मेरे पास क्या है, वह बदला तो भगवान् ही चुका सकते है | आपका उद्देश्य है सत्संग में चले,वहाँ हमारा कल्याण होगा | सत्संग करने का आपका ध्येय है तो भगवान् के लिए ये कोई बड़ी बात नहीं है | वे ही कल्याण कर सकते है | आपको बात कही जाती है वह भगवान् की, महात्मा के उपदेश की बात है | उनके वचनों का मैं अपनी भाषा में अनुवाद कर देता हूँ | उनका पालन आप करे तो आपका और मैं करू तो मेरा लाभ है | मनुस्मृति, गीता, योगशास्त्र के शब्दो का पालन जो कोई करे, उसका कल्याण हो सकता है |
महर्षि पतंजलि कहते है -
मन का निरोध होने पर उसकी द्रष्टा के स्वरुप में स्तिथी हो जाती है | भगवान् ने गीता ६|३५ के उतरार्ध में भी यही बात कही है | महर्षि पतंजलि ने कहा है -यदि अभ्यास वैराग्य नहीं हो सके तो ईश्वरप्रणिधान से भी समाधी सिद्ध हो जाती है | ईश्वर वह है जिसमे क्लेश, कर्म, विपाक, आशय नहीं है | अविधा ,अस्मिता,राग, द्वेष, अभिनिवेश-यह क्लेश है | शुक्ल  कर्म शास्त्रविहित  कर्म है  तथा  कृष्ण कर्म पापकर्म है और तीसरे मिले हुए कर्म है, ऐसे तीन प्रकार के कर्म है | और चौथे कर्म वे है जो न शुक्ल या कृष्ण है या मिले हुए है , वे कर्म महात्मा  के होते है | भगवान् में चारो प्रकार के कर्म नहीं होते | भगवान् को कर्म का फल नहीं मिलता | भगवान् पुरुषोतम है | आगे जाकर कहा उनके नाम का जप और अर्थ का चिंतन , भगवान् का ध्यान, चिंतन करना चाहिये , यही बात गीता में भी भगवान् ने बतलाई है -(गीता ८|१३)
जो पुरुष ' ॐ '  इस एक अक्षर रूप बह्र्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण बह्र्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है | भगवान् का स्मरण करता हुआ जाता है तोह वह भगवान् को प्राप्त होता है | भगवान् ने अर्जुन को योगी बनने के आज्ञा देकर कहा
(गीता ६|४६-४७) योगी तपस्विओ से श्रेस्ठ है,  शास्त्रज्ञानियो से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम करने वालो से भी योगी श्रेष्ठ  है; इसलिए हे अर्जुन ! तू योगी हो | सम्पूर्ण योगिओ में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमे लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरंतर भजता है ,वह योगी मुझे श्रेष्ठ  मान्य है | भवान की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वाले अनेक प्रकार के योगी है |  (शेष अगले पोस्ट में .....)
सेठ श्री जयदयाल जी गोयन्दका ...साधन की आवस्यकता ...गीताप्रेस गोरखपुर ....पुस्तक कोड ११५०

नारायण   !!!!!!!!!        नारायण  !!!!!!!!!!     नारायण!!!!!!!!!!!!