अनन्यभक्ति की महिमा
भगवान जो कुछ करते हैं सब ठीक करते हैं ! वे असम्भव को भी संभव बना सकते हैं ! शुद्ध भगवान् के साकार रूपमें प्रेम न करके हाड़-मांस के पुतले से प्रेम करना कितनी बड़ी मूर्खता है ! जिस स्त्री से प्रेम करते हैं उसके गुण-प्रभाव की और तो देखो ! परमात्मा के एक अंश में भी संसार के सारे गुण नहीं समा सकते ! भगवान् से जो प्रेम करता है, उसे भगवान् स्वत: अपने को समर्पित कर देते हैं !
पूतना को भगवान् ने गति दी ! पूतना झूठी माँ बनी, विष देने वाली माँ को सद्गति दी ! यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब विष मिलानेवालीमाताको यह गति दी तो यशोदा जो दुध पिलानेवाली माता है, उसे क्या गति दी ! यशोदा धमकाती है तो भगवान् काँपते हैं ! यशोदा जिस आँगन में रहती थी, उस आँगन की धूलि में भी मुक्ति है ! यशोदा दूसरों को भी मुक्ति दे सकती है ! एक ब्राह्मण देवता को भोजन के लिये यशोदा मैया ने बुलाया ! उसने कहा कि मुझे सामग्री दे दो, मैं अपने-आप भोजन बनाऊंगा ! भोजन बनाया और भगवान् का स्मरण किया ! भगवान् बालरूप में तो थे ही, आ गये और खाने लगे ! फिर दूसरी बार भोजन तैयार किया और भगवान् का स्मरण किया ! वे आये और खाने लगे ! तब फिर ब्राह्मण ने यशोदा से कह दिया तो यशोदा ने कहा कि मेरी गलती हुई, अब मैं इसे बाँधकर रखूँगी ! तीसरी बार भी इसी प्रकार जा पहुँचे ! तब माता ने उन्हें पीटा ! तब भगवान् ने माता से कहा कि मैं क्या करूँ ! यह मुझे क्यों बुलाता है !तब वह समझ गया कि यह साक्षात् भगवान् हैं ! तब वह यशोदा के आँगन में लोटने लगा ! यशोदा ने पूछा कि क्या कर रहे हो ? उसने कहा कि आपके आँगन में मुक्ति है ! यशोदा के आँगन में आने से ही पूतना को मुक्ति मिली !
ऐसे साक्षात् जो सगुण-साकार भगवान् हैं, उनको छोड़कर जो दूसरों को भजता है, वह मूर्ख है ! पूर्णब्रह्म परमात्मा को छोड़कर जो सांसारिक विषयभोग में रत रहा है उसे धिक्कार है ! `एक कंचन एक कामिनी दुर्लभ घाटी दोय !` इनको त्यागने के बाद फिर मान-बड़ाई के त्याग की यथाशक्ति चेष्टा करनी चाहिए !मान-बड़ाई तथा ईर्ष्या को हटाने की चेष्टा करनी चाहिए ! स्वामीजी आये, बड़ी पूजा की , मान-सत्कार आदि भी किया ! मैं आया तो मेरा भी वैसा ही सत्कार किया ! हमने देखा की श्रद्धालु हैं ! कहीं तिरस्कार हुआ तो कहते हैं कि यहाँ आना ही नहीं है ! बहुत से आदर-सत्कार में ही फंस जाते हैं ! कंचन कामिनी इन दो घाटियों को त्यागने के बाद फिर मान-बड़ाई को भी त्यागने की चेष्टा करनी चाहिए ! एक ओर मान ओर दूसरी ओर अपमान दोनों ही सामान होने चाहिए !
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः !
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते !! (गीता १४!२५)
मान तथा अपमान में तुल्य है, मित्र तथा शत्रु में तुल्य है, ऐसे सब आरम्भो का त्यागी गुणातीत कहा जाता है !...............................सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते !! (गीता १४!२५)
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक सत्संगकी मार्मिक बातें ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १२८३ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]
[ पुस्तक सत्संगकी मार्मिक बातें ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १२८३ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]