※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 13 अगस्त 2012

अनन्यभक्ति की महिमा


अनन्यभक्ति की महिमा

अर्जुन ने कहा कि  यह मन चंचल है ! भगवान् ने कहा है----------------
 असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्याते !! (गीता ६!३५)
 हे महाबाहो ! यह मन बड़ा चंचल है, इसमें कोई भी संशय नहीं ! अभ्यास से एवं वैराग्य से यह मन वश में किया जा सकता है ! अभ्यासका मतलब परमात्मा का ध्यान लगाने का प्रयत्न है !

 गीता में भी बतलाया है--
यतो यतो निश्चरति मनशचन्चलमस्थिरम् ! ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत !! (गीता ६!२६)
 जहाँ-जहाँ यह चंचल स्थिर न रहने वाला मन जाय, वहाँ-वहाँ इसे रोक कर आत्मा में ही लगाये ! यह वैराग्य की बात बतायी !
ये हि संस्पर्शजा भोग दू:ख योनय एव ते ! आध्न्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध: !! (गीता ५!२२ )
 
जो भी संस्पर्शों से उत्पन्न होने वाले भोग हैं, सभी दु:ख को देनेवाले है, वे सब आदि अंत वाले हैं, पण्डित पुरुष इनमें नहीं रमते ! उनमें तो मुर्ख ही रमते हैं ! यह बतलाकर फिर अंत में कहते हैं------
 योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ! श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: !! (गीता ६!४७)
  सम्पूर्ण योगियों में श्रद्धावान पुरुष जिसने मेरे में मन लगा दिया हैं, ऐसा भक्त मुझे प्यारा है ! जितने भी कर्मयोग, ध्यानयोग, अष्टांगयोग हैं, भक्तियोग उन सबमें युक्तम है ! जो मेरे में मन लगाकर श्रद्धा पूर्वक मेरा भजन करता है, उसे सबसे  बढ़कर तथा सबसे सुगम बताया ! जगह-जगह कहा है ! बारहवें अध्याय में अर्जुन ने पूछा-------
 एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ! ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्त्मा: !! (गीता १२!१)
 जो अनन्यप्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वरको और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्मको ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते है--उन दोनों प्रकार के उपासको मे अति उत्तम कौन हैं ? तब भगवान् ने कहा--------
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ! श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्तमाँ मता: !! (गीता १२!२)
  जो पुरुष मेरेमें मन लगाकर नित्य मेरेमें युक्त हुए श्रद्धा से मेरी उपासना करते हैं वे युक्तमय माने गए हैं ! मेरे सगुणरूप मे जिन्होंने मनको लगा दिया है, श्रद्धा करके जप-ध्यान करते है, वे भक्त युक्तम हैं ! परमात्मा निर्गुण-निराकार है, उसका चिंतन मन से हो ही नहीं सकता, नित्य है, अक्रिय है ! ऐसे भगवान् के स्वरुप की उपासना इन्द्रिय-समूह को वश में करके करनी चाहिए ! सब जगह जिनका समभाव है, सब में आत्मा समझकर जो सबके हितमें रत है, वह युक्तम भक्त है ! अर्जुन फिर पूछते हैं कि आपको प्राप्त होनेवालों में भी क्या कई श्रेणियाँ हैं ! भगवान् कहते हैं, निराकारवालों को परिश्रम अधिक है, कठिनता है, इसलिये मुझे सगुण-साकार का भजन कर !मेरे में जो चित्त लगाता है, उसे मैं शीघ्र ही पार कर देता हूँ ! हे अर्जुन ! मैं अनन्य भक्ति के द्वारा प्राप्त हो सकता हूँ ! अनन्य भक्ति से भगवान् कि प्राप्ति बहुत शीघ्र हो सकती है ! सगुण-साकार का कोई साधक दर्शन भी करना चाहे तो उसेन दर्शन भी हो सकते हैं !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक सत्संगकी मार्मिक बातें ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १२८३ A ,गीता प्रेस गोरखपुर ]