अनन्यभक्ति की महिमा
अर्जुन ने कहा कि यह मन चंचल है ! भगवान् ने कहा है----------------
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्याते !! (गीता ६!३५)हे महाबाहो ! यह मन बड़ा चंचल है, इसमें कोई भी संशय नहीं ! अभ्यास से एवं वैराग्य से यह मन वश में किया जा सकता है ! अभ्यासका मतलब परमात्मा का ध्यान लगाने का प्रयत्न है !
गीता में भी बतलाया है--
यतो यतो निश्चरति मनशचन्चलमस्थिरम् ! ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत !! (गीता ६!२६)जहाँ-जहाँ यह चंचल स्थिर न रहने वाला मन जाय, वहाँ-वहाँ इसे रोक कर आत्मा में ही लगाये ! यह वैराग्य की बात बतायी !
ये हि संस्पर्शजा भोग दू:ख योनय एव ते ! आध्न्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध: !! (गीता ५!२२ )
जो भी संस्पर्शों से उत्पन्न होने वाले भोग हैं, सभी दु:ख को देनेवाले है, वे सब आदि अंत वाले हैं, पण्डित पुरुष इनमें नहीं रमते ! उनमें तो मुर्ख ही रमते हैं ! यह बतलाकर फिर अंत में कहते हैं------
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ! श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: !! (गीता ६!४७)
सम्पूर्ण योगियों में श्रद्धावान पुरुष जिसने मेरे में मन लगा दिया हैं, ऐसा भक्त मुझे प्यारा है ! जितने भी कर्मयोग, ध्यानयोग, अष्टांगयोग हैं, भक्तियोग उन सबमें युक्तम है ! जो मेरे में मन लगाकर श्रद्धा पूर्वक मेरा भजन करता है, उसे सबसे बढ़कर तथा सबसे सुगम बताया ! जगह-जगह कहा है ! बारहवें अध्याय में अर्जुन ने पूछा-------एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ! ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्त्मा: !! (गीता १२!१)
जो अनन्यप्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वरको और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्मको ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते है--उन दोनों प्रकार के उपासको मे अति उत्तम कौन हैं ? तब भगवान् ने कहा--------
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ! श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्तमाँ मता: !! (गीता १२!२)
जो पुरुष मेरेमें मन लगाकर नित्य मेरेमें युक्त हुए श्रद्धा से मेरी उपासना करते हैं वे युक्तमय माने गए हैं ! मेरे सगुणरूप मे जिन्होंने मनको लगा दिया है, श्रद्धा करके जप-ध्यान करते है, वे भक्त युक्तम हैं ! परमात्मा निर्गुण-निराकार है, उसका चिंतन मन से हो ही नहीं सकता, नित्य है, अक्रिय है ! ऐसे भगवान् के स्वरुप की उपासना इन्द्रिय-समूह को वश में करके करनी चाहिए ! सब जगह जिनका समभाव है, सब में आत्मा समझकर जो सबके हितमें रत है, वह युक्तम भक्त है ! अर्जुन फिर पूछते हैं कि आपको प्राप्त होनेवालों में भी क्या कई श्रेणियाँ हैं ! भगवान् कहते हैं, निराकारवालों को परिश्रम अधिक है, कठिनता है, इसलिये मुझे सगुण-साकार का भजन कर !मेरे में जो चित्त लगाता है, उसे मैं शीघ्र ही पार कर देता हूँ ! हे अर्जुन ! मैं अनन्य भक्ति के द्वारा प्राप्त हो सकता हूँ ! अनन्य भक्ति से भगवान् कि प्राप्ति बहुत शीघ्र हो सकती है ! सगुण-साकार का कोई साधक दर्शन भी करना चाहे तो उसेन दर्शन भी हो सकते हैं !
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक सत्संगकी मार्मिक बातें ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १२८३ A ,गीता प्रेस गोरखपुर ]
[ पुस्तक सत्संगकी मार्मिक बातें ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १२८३ A ,गीता प्रेस गोरखपुर ]