※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम की मातृभक्ति



मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम
         श्रीराम की मातृभक्ति बड़ी ही आदर्श थी ! उसका ठीक-ठीक वर्णन करना असम्भव है, अत: यहाँ संकेत मात्र ही लिखा जाता है----
माता कौसल्या तथा अन्य माताओं की तो बात ही क्या है,माता कैकयी के द्वारा कठोर-से-कठोर व्यवहार किये जाने पर भी उसके प्रति श्रीराम का व्यवहार तो सदा भक्ति और सम्मान से पूर्ण ही रहा ! माता कौसल्या के महल से लौटते समय कुपित हुए भाई लक्ष्मण से उन्होंने स्वयं कहा है---
यस्या     मदभिषेकार्थे    मानस   परितप्यते !
माता न: सा यथा न स्यात सविशंका तथा कुरु !!
तस्या:  शंकामयं  दू:खं    मुहूर्तमपि   नोत्सहे !
मनसि   प्रतिसंजातं       सौमित्रेऽहमुपेक्षितुम् !!
   बुद्धिपूर्वं   नाबुद्धं   स्मरामिह    कदाचन !
मातृणां  वा पितुर्वाहं  कृत्मल्पं    विप्रियम्  !!
                     (वा० रा० २/२२/६—८)
        `लक्ष्मण ! मेरे राज्याभिषेक के कारन जिसके चित्तमें संताप हो रहा है, उस हमारी माता कैकयी को जिससे मेरे ऊपर किसी तरह का सन्देह न हो, वही काम करो ! उसके मन में सन्देह के कारण उत्पन्न हुए दू:ख की मैं एक मुहूर्त के लिये भी उपेक्षा नहीं कर सकता ! मैंने कभी जान-बुझकर या अनजान में माताओं या पिताजी का कभी थोड़ा भी अप्रिय कार्य किया हो---ऐसा याद नहीं पड़ता !`
          इसके सिवा और भी बहुत-से उदाहरण श्रीरामकी मातृभक्ति के मिलते हैं ! चित्रकूट से लौटते समय भरतसे भी राम ने कहा कि `भाई भरत ! माता कैकयी ने तुम्हारे लिये कामना से या राज्य लोभसे यह जो कुछ किया है, उसको मन में न लाना ! उनके साथ सदा वैसा ही बर्ताव करना, जैसा अपनी पूजनीया माता के साथ करना चाहिये !` उसी समय शत्रुघ्न से भी कहा-----भाई ! मैं तुम्हे अपनी और सीताकी शपथ दिलाकर कहता हूँ कि तुम कभी माता कैकेयी पर क्रोध न करना, सदा उनकी सेवा ही करते रहना ! वनमें रहते समय एक बार लक्ष्मण ने कैकेयी कि निन्दा की, उस पर आपने यही कहा---`भाई ! माता कैकेयी की तुमको निन्दा नहीं चाहिये !`--इत्यादि ! इससे यह पता चलता है कि श्रीरामकी अपनी अन्य माताओंके प्रति कैसी श्रद्धा और भक्ति रही होगी ! राजा दशरथ की अन्य रानियों ने उनके वन जाते समय विलाप करते हुए कहा था-----
कृत्येषचोदितः  पित्रा  सर्वस्यान्त:पुरस्य  च !
गतिश्र्च शरणं चासीत् स रामोऽध प्रव्त्स्यति !!
कौसल्यायां यथा युक्तो जनन्यां वर्तते  सदा !
तथैव  वर्ततेऽस्मासु   जन्मप्रभृति   राघव: !!
                      (वा०रा० २/२०/२-३)
   `जो राम किसी काम काज के विषय में पिता के कुछ न कहने पर भी सरे अंत:पुर की गति और आश्रय थे, वे ही आज वनमें जा रहे हैं ! वे जन्म से ही जैसी सावधानी से पाने माता कौसल्या के साथ बर्ताव करते थे, उसी प्रकार हम सबके साथ भी करते थे !`
  इससें बढ़कर श्रीराम की मातृभक्ति का प्रमाण और क्या होगा !



नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३,गीता प्रेस गोरखपुर ]