※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 19 अगस्त 2012

महापुरुषों में श्रद्धा और भाव की विशेषता


  
  महात्मा की जो कुछ किया  है, उनका किसीके साथ भी सम्बन्ध है, उनके द्वारा जो कुछ भी वस्त्र  छुआ जाता है, श्रद्धालु को उसमें अलौकिकता दिखाती है ! महात्मा के साथ जिन चीजों का संसर्ग हो जाता है, उसके भीतर उसको अलौकिकता प्रतीत होने लगाती है !
   गंगाका जल है और नदी का भी जल है । वैधार्मियोंको तो दोनों एक-सा ही जल दिखता है ।हमारे पास भी एक लोटे में लाकर दोनों जल रख दें तो हम पहचान नहीं पाते, परन्तु हमें मालूम हो जाता है कि यह गंगाजल है तो झट हमारा दूसरा ही भाव हो जाता है ! रास्ते में जाते हैं, पूछा कि यह कौनसी नदी है, बताया गंगा है तो तुरन्त दूसरा ही भाव हो जाता है ! गंगा का ज्ञान होने के बाद श्रद्धाके कारण भाव बदल जाता है ! जिस चीजका हमें ज्ञान है उसमे शुरू से ही दूसरी बात है ! हम जा रहे हैं, रास्ते में वृक्ष आते हैं ! हम लघुशंका के लिये बैठे, तुलसी का पौधा दिखा तो झट खड़े हो जाते हैं कि यह तो तुलसी का पौधा है ! यहाँ लघुशंका कैसे करें ! विधर्मीके यह भाव नहीं होता ! जिसके भाव होता है, उसकी क्रिया बदल जाती है ! हम मन्दिरों में जाकर भगवान् कि मूर्ति को देखकर प्रणाम करते हैं !विधर्मी उसे तोड़ने की चेष्टा कर सकता है !
    श्रद्धा होने से क्रिया बदल जाती है ! आँख वैसी ही विधर्मी के है, वैसी ही हमारे हैं ! कुछ अन्तर नहीं दिखता,पर भाव होने से क्रिया बदल जाती है ! एक श्रद्धालु महात्मा को देख रहा है, दूसरा भी देख रहा है, देखने में अन्तर नहीं है ! पर श्रद्धालु के नेत्र वे ही होते हुए भाव दूसरा होने से दूसरी दृष्टि से देखता है ! उस महात्मा को स्पर्श करके जो जो वायु चलती है उस वायु के लगने से मुग्ध हो जाता है ! वही वायु दुसरे को भी लगती है पर उनके वह  भाव नहीं होता ! नदी बह रही है, हम लोग वहां स्नान कर रहे हैं ! एक महात्मा भी स्नान कर रहे हैं, उन महात्मा को को छूकर जो जल आ रहा है, वह जल जब श्रद्धालु को स्पर्श करता है तो वह गंगाजल से भी बढ़कर उसे समझता है ! प्रत्यक्ष में गंगाजल से बढ़कर उसे दिखाई देता है ! उसकी स्पर्श की हुई धुलिको भी वह श्रद्धा के कारण दूसरी दृष्टि से देखता है !
   अक्रूर भगवान् की चरण धूलि को देखकर रास्ते में कूद पड़े ! अन्य लोग भी उस रास्ते से जाते थे, पर उन्हें विशेषता नहीं दिखाती थी, अक्रूरजीको दिखती थी ! वे उसी धूलि में लोटने लगे ! भरतजी जब भगवान् के चरण चिह्नोंको देखते है तो उन्हें भगवान् के मिलने-जैसा आनन्द होता है ! मस्तक पर लगाते हैं ! उनकी दशा विलक्षण हो गयी ! जड़ चेतन और चेतन जड़ हो गये ! वहाँ चरण-चिह्न पहलेसे थे और लोगों ने देखा भी था, पर उनकी अवस्था ऐसी नहीं थी । श्रद्धालु को ही ऐसी अलौकिकता दिखती है । वह उस बात को समझा नहीं सकता । जब जिसमें यह बीतती है, वह ही नहीं समझ सकता तो मैं तो फिर समझाऊंगा ही क्या ? वास्तव में जिसमें यह बीतती है, वही जान सकता है !
   भाव अलौकिक चीज है । भगवान् की प्राप्ति भाव से होती है । देवता न काठ में हैं, न मिट्टीमें है न पत्थरमें हैं ! जहाँ भाव है, वहाँ देवता है ! सभी चीज में यही बात है ! लौकिक बातों में भी यही बात है ! एक स्त्री को सिंह देखता है तो वह उसे खाने का पदार्थ देखता है, बच्चेको पालनेवाली माँ दिख  रही है । महात्मा को अलौकिक वस्तु दिख  रही है, वह परमात्मा को देख रहा है, विरक्त को त्याज्य वस्तु दिख  रही है ।
इसलिये महात्माओं में, शास्त्रों में जिस प्रकार हमारी श्रद्धा हो वही प्रयत्न हमें करना चाहिये ! 

  
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........ 
पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि, श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३,गीता प्रेस गोरखपुर