※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 20 अगस्त 2012

*माँस-भक्षण निषेध* निवेदन यही है कि पाठक इस लेख को मननपूर्वक पढ़े और उनमें जो माँस खाते हों वे कृपापूर्वक माँस खाना छोड़ दें ।


य इच्छेत पुरुषो अत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम ।
स वर्जयेत मांसानि प्राणिनामिह सर्वशः ॥ ( महा० अनु० ११५ । ४८)

जो पुरुष अपने लिये आत्यन्तिक शान्ति लाभ करना चाहता है, उसको जगत में किसी भी प्राणी का माँस किसी भी निमित्त नहीं खाना चाहिये ।

यद्यपि जगत में बहुत से लोग माँस खाते है, परन्तु विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि माँस-भक्षण सर्वथा हानिप्रद है । इससे लोक-परलोक दोनों बिगड़ते हैं । बहुत से लोग तो ऐसे हैं जो माँस- भक्षण को हानिकारक समझते हुए भी बुरी आदत के वश में होने के कारण नहीं छोड़ सकते । कुछ ऐसे हैं जो आराम और भोगासक्ति के वश में हुए माँस- भक्षण का समर्थन करते है; परन्तु उन लोगों को भी विवेकी पुरुषों के समुदाय में नीचा देखना पड़ता है । माँस- भक्षण से उत्पन्न होनेवाले दोषों का पार नहीं है । उनमें से यहाँ संक्षेप में कुछ बतलाये जाते हैं । निवेदन यही है कि पाठक  इस लेख को मननपूर्वक पढ़े और उनमें जो माँस खाते हों वे कृपापूर्वक माँस खाना छोड़ दें ।

१-माँस- भक्षण भगवत्प्राप्ति में बाधक है ।
२-माँस- भक्षण से ईश्वर की अप्रसन्नता प्राप्त होती है ।
३-माँस- भक्षण महापाप है।
४-माँस- भक्षण से परलोक में दुःख प्राप्त होता है।
५-माँस- भक्षण मनुष्य के लिये प्रकृति विरुद्ध है।
६-माँस- भक्षण से मनुष्य पशुत्व को प्राप्त होता है ।
७-माँस- भक्षण मनुष्य की अनधिकार चेष्टा है ।
८-माँस- भक्षण घोर निर्दयता है।
९-माँस- भक्षण से स्वास्थ्य का नाश होता है ।
१०-माँस- भक्षण शास्त्रनिन्दित है।

अब उपर्युक्त दस विषयों पर संक्षेप में पृथक -पृथक विचार कीजिये ।

(१) सम्पूर्ण रुप से अभय पद की प्राप्ति को ही मुक्ति,परमपद-प्राप्ति या भगवत्प्राप्ति कहते हैं । इस अभय पद की प्राप्ति उसी को होती है  जो दूसरों को  अभय देता है । जो अपने उदर पोषण अथवा जीभ के स्वाद के लिये कठोर हृदय होकर प्राणियों की हिंसा करता-कराता है , वह प्राणियों को भय देनेवाला और उनका अनिष्ट करने वाला मनुष्य अभय पद को कैसे प्राप्त हो सकता है ? श्रीभगवान ने निराकार उपासना में लगे हुये साधक के लिये सर्वभूतहिते रताःऔर भक्त के लिये अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव चकहकर सर्वभूतहित और प्राणिमात्र के प्रति मैत्री और दया करने का विधान किया है । भूतहित और भूतदया के बिना परमपद की प्राप्ति अत्यन्त दुष्कर है। अतएव आत्मा के उद्धार की इच्छा रखनेवाले पुरुष का कर्तव्य है कि  वह किसी भी जीव को किसी समय किसी प्रकार किंचिन्मात्र भी कष्ट न पहुँचावे । भगवत्प्राप्ति की तो बात ही दूर है, माँस खाने वाले को तो स्वर्ग की प्राप्ति भी नहीं होती । मनु महाराज कहते है -

नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां माँसमुत्पद्यते क्कचित।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत॥ ( ५। ४८)

’ प्राणियों की हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं होता । और प्राणिवध करने से स्वर्ग नहीं मिलता , अतएव मांस का त्याग करना चाहिए । ’   ..........................शेष अगले ब्लाग में

(’तत्त्वचिन्तामणिग्रंथ से, कोड नं० ६८३ )