※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

*माँस- भक्षण निषेध* निवेदन यही है कि पाठक इस लेख को मननपूर्वक पढ़े और उनमें जो माँस खाते हों वे कृपापूर्वक माँस खाना छोड़ दें ।


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(२) समस्त चराचर जगत के रचयिता परम पिता परमात्मा की दृष्टि में सभी जीव समान है, या यों कहना चाहिये कि उनके द्वारा रचित होने के कारण सब उन्हीं की सन्तान हैं । इसलिये भक्त की दृष्टि में सभी जीव अपनें भाई के समान होते है, इस रहस्य के जाननेवाले ईश्वर भक्त के लिये परम पिता परमात्मा की सन्तान अपने बन्धु रुप किसी भी प्राणी को मारना तो दूर रहा , वह किसी को किन्चित कष्ट भी नहीं पहुँचा सकता । जो लोग इस बात को न समझकर स्वार्थवश दूसरे जीवोंकी हिंसा करते है और हिंसा करते हुये ही अपने ऊपर ईश्वर की दया चाहते हैं और ईश्वर प्राप्ति की कामना करते हैं वे बड़े भ्रममें हैं । प्राणिवध करनेवाले क्रूरकर्मी मनुष्यों पर ईश्वर कैसे प्रसन्न हो सकते हैं ? किसी पिता का एक लड़का लोभ वश अपने दूसरे निर्दोष भाइयों को सताकर या मारकर जैसे पिता का कोप भाजन होता है वैसे ही प्राणियों को पीड़ा पहुँचानेवाले लोग ईश्वर की अप्रसन्नता और कोप के पात्र होते हैं।




(३) धर्म मॆं सबसे पहला स्थान अहिंसा को दिया गया है और सब तो धर्म के अंग हैं, परन्तु अहिंसा परम धर्म है- 
अहिंसा परमो धर्मः । (महाभारत अनु० ११५ । २५) । धर्म का तात्पर्य अहिंसा में है । धर्म को मानने वाले सभी लोग अहिंसा और त्याग की प्रशंसा करते हैं। जो धर्म मनुष्य की वृत्तियों को अहिंसा , त्याग, निवृत्ति और संयम की ओर ले जाता है, वही यथार्थ धर्म है। जिस धर्म में इन बातों की कमी है वह धर्म अधूरा है, मांस-भक्षण करनेवाले अहिंसा-धर्म का हनन करते हैं, धर्म का हनन ही पाप है । कोई यह कहे कि हम स्वयं जानवरों को न तो मारते हैं और न मरवाते हैं, दूसरों के द्वारा मारे हुए पशु-पक्षियों का मांस खरीदकर खाते हैं इसलिये हम प्राणिहिंसा के पापी क्यों माने जायँ ? इसका उत्तर स्पष्ट है । हिंसा मांसाहारियों के लिये ही की जाती है । कसाईखाने मांस खानेवालों के लिये ही बनें हैं। यदि मांसाहारी लोग मांस खाना छोड़ दें तो प्राणिवध कोई किसलिये करे? फिर यह भी समझने की बात है की केवल अपने हाथों किसी को मारने का नाम ही हिंसा नहीं है । महर्षि पतन्जलि ने अहिंसा के मुख्यतया सत्ताईस भेद बतलाये हैं । यथा-

वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभ क्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानान्तफला इति प्रतिपक्षभावनम ।
 (योग० २।३४)


अर्थात स्वयं हिंसा करना , दूसरे से करवाना और हिंसा का समर्थन करना - यह तीन प्रकार की हिंसा है। ये तीन प्रकार की हिंसा लोभ ,क्रोध और अज्ञान के हेतुओं से होने के कारण (३x३=९) नौ प्रकार की हो जाती है । और नौ प्रकार की हिंसा मृदु, मध्य और अधिमात्रा से होने से (९x३=२७) सत्ताईस प्रकार की हो जाती है । इसी तरह मिथ्या भाषण आदि का भी भेद समझ लेना चाहिये । ये हिंसादि सभी दोष कभी नहीं मिटनेवाले दुःख और अज्ञान रुप फल को देनेवाले हैं ऐसा विचार करना ही प्रतिपक्ष भावना है, यही सत्ताईस प्रकार की हिंसा शरीर, वाणी और मन से होने के कारण इक्यासी भेदोवाली बन जाती है । इसलिये स्वयं न मारकर दूसरों के द्वारा मारे हुये पशुओं का मांस खानेवाला भी वास्तव में प्राणिहिंसक ही है ।................शेष अगले ब्लाग में


(’तत्त्वचिन्तामणि ग्रंथ से, कोड नं० ६८३ )