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महर्षि याज्ञवल्क्य कहते है – ‘दिन या रात्रि के समय अनजान में जो पाप बन जाता है, वह सारा ही तीनो काल की संध्या करने से नष्ट हो जाता है |’ (३ |३०८)
महर्षि कात्यायन का वचन है – ‘जो प्रतिदिन स्नान करता है तथा कभी संध्या-कर्म का लोप नहीं करता, दोष उसके पास भी नहीं फटकते – जैसे गरुड़ जी के पास सर्प नहीं जाते |’ (११ |१६)
समय की गति सूर्य के द्वारा नियमित होती है | सूर्य भगवान् जब उदय होते है, तब दिन का प्रारम्भ तथा रात्रि का शेष होता है; इसको प्रात:काल भी कहते है | जब वे आकाश के शिखर पर आरूढ़ होते है, उस समय को दिन का मध्य अथवा मध्याह्न कहते है और जब वे अस्तांचल को जाते है, तब दिन का शेष और रात्रि का प्रारंभ होता है | इसे सायँकाल भी कहते है | ये तीन काल उपासना के मुख्य काल माने गए है | यो तो जीवन का प्रत्येक क्षण उपासनामय होना चाहिए, परन्तु इन तीन काल में तो भगवान् की उपासना अत्यंत नितान्त आवश्यक बताई गयी है | इन तीनो समय की उपासना का नाम ही क्रमश:प्रात:संध्या, मध्यान:संध्या, और साय:संध्या है | प्रत्येक वस्तु की तीन अवस्थाये –उत्पत्ति, पूर्ण विकाश और विनाश | जीवन की भी तीन दशाये होती है जन्म, पूर्ण युवावस्था, और मृत्यु | हमे इन अवस्थाओ का स्मरण दिलाने के लिए तथा इस प्रकार अन्दर संसार के प्रति वैराग्य की भावना जाग्रत करने के लिए ही मानो सूर्य भगवान् प्रतिदिन उदय होने, उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होने और फिर अस्त होने की लीला करते है| भगवान् की इस त्रिविध लीला के साथ ही हमारे शास्त्रों ने तीन काल की उपासना जोड़ दी है |
इस प्रकार युक्ति
से भी भगवान् सूर्य की उपासना हमारे लिए अत्यंत कल्याणकरक, थोड़े परिश्रम के बदले में महान फल देने वाली अतएव अवश्य
कर्तव्य है | अत द्विजाति-मात्र को चाहिये की वे लोग
नियमपूर्वक त्रिकालसंध्या के रूप में भगवान् सूर्य की उपासना किया करे और इस
प्रकार लौकिक एवं पारमार्थिक दोनों प्रकार से लाभ उठावे | आशा
है, सभी लोग इस सस्ते सौदे को सहर्ष स्वीकार करेंगे; इसमें खर्च एक पैसे का भी नहीं है और समय भी बहुत कम लगता है, परन्तु इसका फल अत्यंत महान है |इसलिए सब लोगो को
श्रधा, प्रेम एवं लगन के साथ इस कर्म के अनुष्ठान में लग
जाना चाहिये | फिर सब प्रकार से मंगल-ही-मंगल है |........शेष अगले ब्लॉग
में
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर