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जिन
वेदों की हमारे शास्त्रों में इतनी महिमा है, उन वेदों के अंगभूत मंत्रो की अन्य किसी भाषा
अथवा अन्य किसी वाक्य-रचना के साथ तुलना नहीं की जा सकती | भावो
को व्यक्त करने के लिए भाषा की सहायता आवश्यक होती है | भाषा
और भाव का परस्पर अविच्छेद सम्बन्ध है | हमारे शास्त्रों ने तो
शब्द को भी अनादि, नित्य एवं ब्रह्म
रूप ही माना है तथा वाच्य एवं वाचक का अभेद स्वीकार किया है | इसी प्रकार वैदिक वेद मंत्रो का भी अपना एक विशेष महत्व है | उनमे एक विशेष शक्ति निहित है, जो उनके उच्चारण
मात्र से प्रकट हो जाती है, अर्थ की ओर लक्ष्य रखते हुए
उच्चारण करने पर तो वह और जल्दी आविर्भूत होती
है
| इसके अतिरिक्त आनादी काल से इतने
असंख्य लोगो ने उनकी आवृति एवं अनुष्ठान करके उन्हें जगाया है कि उन सबकी शक्ति भी
उनके अंदर संक्रांत हो गयी है | ऐसी दशा में तोते की भांति
बिना समझे हुए भी उनका स्वर सहित शुद्ध उच्चारण करने का कम महत्त्व नहीं है;
फिर अर्थ को समझते हुए
उनके भाव में भावित होकर श्रद्धा और प्रेमपूर्वक उनके उच्चारण का तो इतना अधिक
महत्व है कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता |
वह तो सोने में सुगंध का काम करता है | यही
नहीं, वैदिक मंत्रो के उच्चारण का तो एक अलग शास्त्र ही है,
उसकी तो एक-एक मात्रा और एक-एक स्वर का इतना महत्व है की उसके
उच्चारण में जरा सी त्रुटी हो जाने से अभिप्रेत अर्थ से विपरीत अर्थ का बोध हो
सकता है | कहा भी है –
वेद
मन्त्र के एक शब्द का भी यदि ठीक प्रयोग न हुआ, उसके स्वर, मात्रा या
अक्षर के उच्चारण में त्रुटी हो गयी, तो उससे अभीष्ट अर्थ का
प्रतिपादन नहीं होता |’
यही
कारण है कि लाखो-करोडो वर्षो से वैदिक लोग परंपरा से पद, क्रम, घन और
जटासहित वैदिक मंत्रो का सस्वर कंठस्थ करते आये है और इस प्रकार उन्होंने वैदिक
परंपरा और वैदिक साहित्य को जीवित रखा |
इसलिये वैदिक मंत्रो की उपयोगिता के विषय में शंका न करके द्विजाति
मात्र को उपनयन संस्कार के बाद संध्या को अर्थसहित सीख लेना चाहिए और फिर कम-से-कम
सांय:काल और प्रात:काल दोनों संधियों के समय श्रद्धा-प्रेम और विधि पूर्वक
अनुष्ठान करना चाहिए | ऐसा करने से उन्हें बहुत जल्दी लाभ
प्रतीत होगा और फिर वे इसे कभी छोड़ना न चाहेंगे |
इसके
अतिरिक्त द्विजाति मात्र को नित्य नियमपूर्वक संध्या करने के लिए वेदों की स्पष्ट
आज्ञा है, जैसा कि हम ऊपर कह आये है उस आज्ञाका पालन करने के लिए हमे संध्योपासना
नित्य करनी चाहिये; क्योकि वेद ईश्वर की वाणी होने के कारन
हमारे लिए परम मान्य है और उनकी आज्ञा की अवेलहना करना हमारे लिए अत्यंत हानिकर है
| इस दृष्टि से भी संध्योपासना करना परम आवश्यक है | पुराने ज़माने में तो लोग पूरा वेद कम-से-कम अपनी शाखा पूरी कंठ किया करते
थे और इसके लिए वेदों की स्पष्ट आज्ञा भी है , वेदों का
अध्ययन अवश्य करना चाहिये | यदि हम पूरा वेद अथवा पूरी शाखा
कंठ नहीं कर सकते तो कम-से-कम संध्या मात्र तो अवश्य कर लेना चाहिये और उसका प्रतिदिन
अनुष्ठान करना चाहिये जिससे वैदिक संस्कृति का लोप न हो और हम लोग अपने स्वरुप और
धर्म की रक्षा कर सके | नियमपालन और संगठन की दृष्टि से इसकी
बड़ी आवश्यकता है , नहीं तो एक दिन हमलोग
विजातीय संस्कारो के प्रवाह में बहकर अपना सब कुछ गवाँ बैठेंगे और अन्य प्राचीन
जातियो की भांति हमारा भी नाममात्र शेष रह जायेगा | वह दिन जल्दी न आवे इसके लिए हमे सतर्क हो जाना चाहिये और यदि हम संसार
में जीवित रहना चाहते है तो हमे अपने प्राचीन संस्कृति की रक्षा के लिए कटिबद्ध हो
जाना चाहिये | भगवान तो हमारे और हमारी संस्कृति के सहायक है
ही;अन्यथा इस पर ऐसे-ऐसे प्रबल आक्रमण हुए कि उनके आघात से
कभी की नष्ट हो गयी होती |........शेष
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जयदयाल गोयन्दका,
तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर