※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 18 नवंबर 2012

संध्या-गायत्री का महत्व

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भगवान हयग्रीव द्वारा वेदों की रक्षा 
यह शंका सर्वथा निर्मूल नहीं है | ईश्वर की दृष्टि में अवश्य ही भाषा का कोई विशेष महत्व नहीं है | उनकी दृष्टि में सभी भाषाएँ समान है और सभी प्रार्थनाओ को वे सुनते है और उत्तर चाहने पर उसी भाषा में उसका उत्तर भी देते है यह भी ठीक है कि प्रार्थना में भाव की प्रधानता है, उसका सम्बन्ध हृदय से है और अपने भावो से जितने स्पष्ट रूप से हम अपनी मातृ भाषा में रख सकते है,उतना स्पष्ट हम और किसी भाषा में नहीं रख सकते | यह भी निर्विवाद है की हृदय की मूक प्रार्थना जितना काम कर सकती है, केवल कुछ चुने हुए शब्दो के  उच्चारणमात्र से वह कार्य नहीं बन सकता | इन सब बातो को स्वीकार करते हुए भी हम संध्या को उसी रूप में करने के पक्षपाती है, जिस रूप में उसको करने का शास्त्रों में विधान है और जिस रूप में लाखो-करोडो वर्षो से,बल्कि अनादि काल से हमारे पूर्वज करते आये है |

संध्या में ईश्वर की स्तुति, ध्यान और प्रार्थना है  और उसके उतने अंश की पूर्ति अपनी मात्रृभाषा में, अपने ही शब्दों में की हुई प्रार्थना से भी अथवा हृदय की मूक प्रार्थना से भी हो सकती है |जो लोग इस रूप में प्रार्थना करना चाहते है अथवा करते है वे अवश्य ऐसा करें | उनका हम विरोध नहीं करते है बल्कि हृदय से समर्थन ही करते है; क्योंकि वैदिक-मंत्रो के उच्चारण का सबको अधिकार भी नहीं है न सबका उनमें विश्वास ही है | अन्यान्य मत और मजहबों की भाँति सनातन वैदिक धर्म की मान्यता यह नहीं है कि अन्य मतावलम्बियों को ईश्वर की प्राप्ति हो ही नहीं सकती, उनके लिए ईश्वर का द्वार बंद है | अधिकार  न होने के कारण जो लोग वैदिक मंत्रो का उच्चारण नहीं कर सकते अथवा जिनका वैदिक धर्म में विश्वास नहीं है वे लोग अपने-अपने ढंग की प्रार्थना के द्वारा ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त कर सकते है और जिन्हें वैदिक संध्या करने का अधिकार प्राप्त है , वे लोग भी इस रूप में प्रार्थना कर सकते है; परन्तु उन्हें संध्या का परित्याग नहीं करना चाहिए | संध्या के साथ-साथ वे ईश्वर को रीझाने के लिए चाहे जितने और साधन भी कर सकते है | ये सभी साधन एक दूसरे के सहायक ही है, कोई किसी से छोटा अथवा बड़ा नहीं कहा जा सकता |


यह ठीक है कि ईश्वर की दृष्टि में भाषा का कोई विशेष महत्व नहीं है और वैदिक भाषा भी अनन्य भाषाओ की भांति अपने हार्दिक अभिप्राय को व्यक्त करने का एक साधनमात्र है ; परंतु वैदिक धर्मावलम्बियो की धारणा इस सम्बन्ध में कुछ दूसरी ही है | उनकी दृष्टि में वेद अपौरूषेय है, वे किसी मनुष्य के द्वारा बनाए हुए नहीं है | वे साक्षात् ईश्वर के नि:श्वाश  है , ईश्वर की वाणी है , ‘यस्य नि:स्वशिस्तम् वेदा:’ |’  ऋषि लोग उनके द्रष्टा मात्र है - ऋषयो मन्त्रद्रषटार: |’ अनुभव करने वाले है, रचयिता नहीं | सृष्टि के आदि में भगवान नारायण पहले-पहल ब्रह्मा को उत्पन्न करते है और उन्हें वेदों का उपदेश देते है | इसलिए हम वैदिक धर्मावलम्बियो के लिए वेद बड़े महत्व की वस्तु है | वेद ही ईश्वरीय ज्ञान की अनादि स्रोत है | उन्ही से सारा ज्ञान निकला है | धर्म का आधार भी वेद ही है | हमारे कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णायक वेद ही है | सारे शास्त्र वेद की ही आधार को लेकर चलते है | स्मृति-आगम-पुराणादि शास्त्रों की प्रमाणता वेदमूलक ही है | जहाँ श्रुति और स्मृति का परस्पर विरोध दृष्टिगोचर हो,वहाँ श्रुति को ही बलवान माना जाता है | तात्पर्य यह है कि वेद हमारे सर्वस्व है, वेद हमारे प्राण है, वेदों पर ही हमारा जीवन अवलंबित है, वेद ही हमारे आधार स्तम्भ है | वेदों की जितनी भी महिमा गई जाय, थोड़ी है |........शेष अगले ब्लॉग में


जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर