※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 17 नवंबर 2012

संध्या-गायत्री का महत्व

'मामेकं शरणं व्रज' मुझ एक की शरण में आ जाओ |
गत ब्लाग से आगे.....

बात भी बिलकुल ठीक ही है | यह मनुष्य जन्म हमे ईश्वरोपासना के लिए ही मिला है | संसार के भोग तो हम अन्य योनियो में भी भोग सकते है, परन्तु ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने तथा उनकी आराधना करने का अधिकार तो हमे मनुष्य योनी में ही मिलता है | मनुष्यों में भी जिनका द्विजाति-संस्कार हो चुका है, वे लोग भी यदि नित्य नियमित रूप से ईश्वरोपासना न करे, तो वे अपने अधिकार का दुरूपयोग करते है, उन्हें द्विजाति कहलाने का क्या अधिकार है ? जो मनुष्य जन्म पाकर भी भगवद उपासना से विमुख रहते है, वे मरने के बाद मनुष्य योनी से नीचे गिरा दिए जाते है और इस प्रकार भगवान की दया से जन्म-मरण के चक्कर से छुटने का जो सुलभ साधन उन्हें प्राप्त हुआ था उसे अपनी मुर्खता से खो बैठते है | मनुष्य में भी जिन्होंने मलेच्छ, चांडाल, शुद्र आदि योनियो से ऊपर उठकर द्विज-शरीर प्राप्त किया है, वे भी यदि ईश्वर की आराधना नहीं करते, वेद रुपी ईश्वरीय आज्ञा का उल्लंघन करते है, उन्हें यदि मरने पर कुत्ते की योनी मिले तो इसमें आश्चर्य क्या है? अत: प्रत्येक द्विज कहलाने-वाले को चाहिए की वह नित्य नियमपूर्वक दोनों समय(अर्थात प्रात:काल और सांयकाल) वैदिक विधि से अर्थात् वेदोक्त मंत्रो से संध्योपासना करे | यो तो शास्त्रों में सांय:, प्रात: एवं मध्यान्ह:काल में तीनो समय ही संध्या करने  का विधान है; परन्तु जिन लोगो को मध्यान: से समय जीविकोपार्जन के कार्य से अवकाश न मिल पाए अथवा जो और किसी अड़चन  के कारण मध्यान काल की संध्या को बराबर न नीभा सके, उन्हें चाहिए कि वे दिन में कम से कम दो बार अर्थात् प्रात:काल और सायंकाल तो नियमित रूप से संध्या अवश्य ही करे |
        
           संध्या में क्रिया की प्रधानता तो है ही, परन्तु जिस-जिस मन्त्र का जिस-जिस क्रिया में विनियोग है, उस उस क्रिया को विधिपूर्वक करते हुए उस मन्त्र का शुद्ध उच्चारण भी करना चाहिये और साथ-साथ उस मन्त्र के अर्थ की ओर लक्ष्य रखते हुए उसी भाव से भावित होने की चेष्टा करनी चाहिये उदाहरणत: सुर्यस्च मा०इस मन्त्र का शुद्ध उच्चारण करके आचमन करना चाहिये और साथ ही इस मन्त्र के अर्थ की ओर लक्ष्य रखते हुए यह भावना करनी चाहिये की जिस प्रकार यह अभिमंत्रित जल मेरे मुँह में जा रहा है उसी प्रकार मन, वचन, कर्म से मैंने व्यतीत रात्रि में जो-जो पाप किये हो और इस समय जो भी पाप मेरे अन्दर हो वे भगवान् सूर्य की ज्योति में विलीन हो रहे है, भस्म हो रहे है;भगवान के सामने पापो की ताकत ही क्या कि जो वे ठहर सकें |

             आजकल कुछ लोग ऐसा कहते है कि संध्या का अर्थ है ईश्वरोपासना | ईश्वर की दृष्टि में सभी भाषाएँ समान है और सभी भाषाओ में की हुई प्रार्थना एवं स्तुति उनके पास पहुँच सकती है; क्योंकि सभी भाषाएँ उन्हीं की रची हुई है और ऐसी कोई भाषा नहीं, जिसे वे न समझते हो | फिर क्यों न हम लोग अपनी मातृ भाषा में ही उनकी प्रार्थना और स्तुति करे ? संस्कृत अथवा वैदिक भाषा की अपेक्षा अपनी निज की भाषा में हम अपने भावो को अधिक स्पष्ट रूप में व्यक्त कर सकते है | जिस समय देश में वैदिक अथवा संस्कृत भाषा बोली जाती रही हो, उस समय का वैदिक मंत्रो के द्वारा संध्या करना ठीक रहा; परन्तु वर्तमान युग में जब की संस्कृत के जानने वाले लोग बहुत कम रह रह गए है यह तक की वैदिक मंत्रो के उच्चारण में ही लोगो को कठिनाई का अनुभव होता है, उनका अर्थ जानना और उनके भावो में भावित होना तो दूर रहा | इस लकीर को पीटने से क्या लाभ, बल्कि ईश्वर तो घट-घट में व्याप्त है, वे तो हमारे ह्रदय की सूक्ष्मतम् बातो को भी जानते है | उनके लिए तो भाषा के आडम्बर की आवश्यकता ही नहीं है | उनके सामने तो ह्रदय की मूक प्रार्थना ही पर्याप्त है  | बल्कि सच्ची प्रार्थना तो हृदय की होती है | बिना हृदय के केवल तोते की तरह रटे हुए शब्दों के उच्चारण मात्र से क्या होता है | .......शेष अगले ब्लॉग में

जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर