गायत्री माता |
नैमित्तिक कर्म वे कहलाते है, जो
किसी विशेष निमित्त को लेकर खास-खास अवसरों पर आवश्यकरूप से किये जाते है |जैसे पितृपक्ष ( आश्र्विन कृष्णपक्ष) में पितरो के लिए श्राद्ध किया जाता
है | नैमित्तिक कर्मो को भी शास्त्रों में आवश्यक कर्तव्य
बतलाया गया है | और उन्हें भी कर्तव्य रूप से बिना किसी
फलासंधि के करने की आज्ञा दी गयी है; परन्तु उन्हें नित्य
करने की आज्ञा नहीं दी है | यह नित्य और नैमित्तिक कर्मो के
भेद है |अवश्य ही नित्य और नैमित्तिक दोनों प्रकार के कर्मो
के न करने में दोष बतलाया गया है | तीसरे काम्य कर्म वे है
जो बिना किसी कामना से- किसी फलाभिसन्धी से किये जाते है और जिनके न करने में कोई
दोष नहीं लगता | उनका करना, न करना
सर्वथा कर्ता की इच्छा पर निर्भर है | जैसे पुत्र की
प्राप्ति के लिए शास्त्रों में पुत्रेष्टि-यज्ञ का विधान पाया जाता है | जिसे पुत्र कामना हो, वह चाहे तो पुत्रेष्टि-यज्ञ कर सकता है |
किन्तु जिसे पुत्र प्राप्त है अथवा जिसे पुत्र की इच्छा नहीं है या
जिसने विवाह ही नहीं किया है अथवा विवाह करके गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया है,
उसे पुत्रेष्टि-यज्ञ करने की कोई आवश्यकता नहीं है और इस यज्ञ के न
करने से कोई दोष लगता हो, यह बात भी नहीं है; परन्तु नित्यकर्मो को तो
प्रतिदिन करने की आज्ञा है, उसमे एक दिन का नागा भी क्षम्य नहीं है और प्रत्येक द्विजाती को जिसने
शिखा-सूत्र का त्याग नहीं किया है, और चतुर्थ आश्रम (सन्यास)
को छोड़ कर पहले तीनो आश्रमों में नित्यकर्मो का अनुष्ठान करना ही चाहिये |
नित्यकर्म ये है – संध्या, तर्पण, बलिवैश्वदेव, स्वाध्याय,
जप,होम आदि | इन सबमे
संध्या और गायत्री-जप मुख्य है; क्योकि यह ईश्वर की उपासना
है और बाकी कर्म देवताओ, ऋषियो तथा पितरो आदि के उदेश्य से
किये जाते है |यद्पि इन सबको भी परमेश्वर की प्रीति के लिए
ही किया जाना चाहिये |
संध्या न करने वाले को तो बड़ा दोष का भागी बतलाया गया है | देवीभागवत में लिखा है –
‘जो द्विज संध्या नहीं जानता और संध्योपासना नहीं करता, वह जीता हुआ ही शूद्र हो जाता है और मरने पर कुत्ते की योनि को प्राप्त
होता है |’ (११|१६|६)
दक्षस्मृति का वचन है – ‘संध्याहीन
द्विज नित्य ही अपवित्र है और सम्पूर्ण धर्मकार्य करनेमें अयोग्य है| वह जो कुछ भी कर्म करता है उसका फल उसे नहीं मिलता|’ (२|२३)
भगवान् मनु कहते है – ‘जो
द्विज प्रात:काल और सांयकाल: की संध्या नहीं करता, उसे शुद्र
की भाँती द्विजातियो के करने योग्य सभी कर्मो से अलग कर देना चाहिए |’ (मनु० २|२०३) .......शेष
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