※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

संध्या-गायत्री का महत्व


गायत्री माता 
संध्योपासना तथा गायत्री-जप का हमारे शास्त्रो में बहुत महत्व कहा गया है | द्विजातीमात्र के लिए इन दोनों कर्मो को अवश्यक कर्तव्य बतलाया गया है | श्रुति भगवती कहती है – ‘प्रतिदिन बिना नागा संध्योपासना अवश्य करनी चाहिए | शास्त्रों में तीन प्रकार के कर्मो का उल्लेख मिलता है नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य  | नित्यकर्म उसे कहते है, जिसे नित्य नियमपूर्वक- बिना नागा- कर्तव्य बुद्धि से एवं बिना किसी फलेच्छा के करने के लिए शास्त्रों की आज्ञा है |

नैमित्तिक कर्म वे कहलाते है, जो किसी विशेष निमित्त को लेकर खास-खास अवसरों पर आवश्यकरूप से किये जाते है |जैसे पितृपक्ष ( आश्र्विन कृष्णपक्ष) में पितरो के लिए श्राद्ध किया जाता है | नैमित्तिक कर्मो को भी शास्त्रों में आवश्यक कर्तव्य बतलाया गया है | और उन्हें भी कर्तव्य रूप से बिना किसी फलासंधि के करने की आज्ञा दी गयी है; परन्तु उन्हें नित्य करने की आज्ञा नहीं दी है | यह नित्य और नैमित्तिक कर्मो के भेद है |अवश्य ही नित्य और नैमित्तिक दोनों प्रकार के कर्मो के न करने में दोष बतलाया गया है | तीसरे काम्य कर्म वे है जो बिना किसी कामना से- किसी फलाभिसन्धी से किये जाते है और जिनके न करने में कोई दोष नहीं लगता | उनका करना, न करना सर्वथा कर्ता की इच्छा पर निर्भर है | जैसे पुत्र की प्राप्ति के लिए शास्त्रों में पुत्रेष्टि-यज्ञ का विधान पाया जाता है जिसे पुत्र कामना हो, वह चाहे तो पुत्रेष्टि-यज्ञ कर सकता है | किन्तु जिसे पुत्र प्राप्त है अथवा जिसे पुत्र की इच्छा नहीं है या जिसने विवाह ही नहीं किया है अथवा विवाह करके गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया है, उसे पुत्रेष्टि-यज्ञ करने की कोई आवश्यकता नहीं है और इस यज्ञ के न करने से कोई दोष लगता हो, यह बात भी नहीं है; परन्तु नित्यकर्मो को  तो प्रतिदिन करने की आज्ञा है, उसमे एक दिन का नागा भी क्षम्य नहीं है और प्रत्येक द्विजाती को जिसने शिखा-सूत्र का त्याग नहीं किया है, और चतुर्थ आश्रम (सन्यास) को छोड़ कर पहले तीनो आश्रमों में नित्यकर्मो का अनुष्ठान करना ही चाहिये | नित्यकर्म ये है संध्या, तर्पण, बलिवैश्वदेव, स्वाध्याय, जप,होम आदि | इन सबमे संध्या और गायत्री-जप मुख्य है; क्योकि यह ईश्वर की उपासना है और बाकी कर्म देवताओ, ऋषियो तथा पितरो आदि के उदेश्य से किये जाते है |यद्पि इन सबको भी परमेश्वर की प्रीति के लिए ही किया जाना चाहिये |


संध्या न करने वाले को तो बड़ा दोष का भागी बतलाया गया है | देवीभागवत में लिखा है जो द्विज संध्या नहीं जानता और संध्योपासना नहीं करता, वह जीता हुआ ही शूद्र हो जाता है और मरने पर कुत्ते की योनि को प्राप्त होता है |’ (११|१६|६)


दक्षस्मृति का वचन है संध्याहीन द्विज नित्य ही अपवित्र है और सम्पूर्ण धर्मकार्य करनेमें अयोग्य है| वह जो कुछ भी कर्म करता है उसका फल उसे नहीं मिलता|’ (|२३) 


भगवान् मनु कहते है जो द्विज प्रात:काल और सांयकाल: की संध्या नहीं करता, उसे शुद्र की भाँती द्विजातियो के करने योग्य सभी कर्मो से अलग कर देना चाहिए |’ (मनु० २|२०३).......शेष अगले ब्लॉग में


जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर