जिसमे इस प्रकार दुःख-ही-दुःख भरा है,सुख की केवल भ्रान्ति मात्र है | ऐसे धन के उपार्जन और संचय को ही अपने जीवन का उदेश्य मान लेना और इसी में दिन-रात लगे रहना प्रमाद के सिवाय और क्या है |मनुष्य यदि गंभीरता से विचार करके देखे तो पता लगेगा कि वर्तमान समय में तो केवल शरीर निर्वाह मात्र के लिए भी न्यायपूर्वक धनोपार्जन करना दुःख और परिश्रम से खाली नहीं है | ऐसी परिस्थिती में कौन समझदार आदमी थोड़े-से-जीवन के लिए धनसंग्रहार्थ अपने अमूल्य समय को भारी संकट में डाल कर भयंकर पाप बटोरेगा और इसके फलस्वरूप अपने इस लोक और परलोक को अशान्ति, दुःख और नारकीय यन्त्रणा से परिपूर्ण करेगा |
यही बात शरीर के पालन-पोषण और भोगो के उपभोग के विषय में समझनी चाहिए | कोई भी भोग बिना
आरम्भ किये नहीं प्राप्त होता | शरीर के पालन-पोषण अथवा भोगोपभोग के लिए कुछ-न-कुछ आरम्भ करना ही पड़ता
है और कोई भी आरम्भ आयास और पाप से खाली नहीं है; खास करके आजकल के अर्थप्रधान आसुरी युग में |
‘क्योंकि धुएं से अग्नि की
भांति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त है|’
(गीता १८|४८)
इसलिये थोड़े-से जीने के लिए शरीरनिर्वाह के अतिरिक्त विशेष
विषयोपभोग के लिए भोग्यपदार्थो का संग्रह करना इस लोक और परलोक से वंचित होकर
अपने-आपको भयानक भय में डालना है | पूर्ण, यथार्थ नित्य
सुख तो परमात्मा की प्राप्ति में है | उसी में परम आनंद और शाश्वत शांति है | वह सुख-शांति
देश, काल और वस्तु से अपरिछिन्त्र होने के कारण नित्य, असीम, अपर, सर्वोपरि और महान है | उसकी महिमा कोई
नहीं बतला सकता | भगवन कहते है –
‘वह सभी विद्याओं का राजा, सब गोपिनियो का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम,प्रत्यक्ष फलवाला , धर्मयुक्त, साधन करने में
बड़ा सुगम और अविनाशी है |’ (गीता ९|२)
जिसे प्राप्त करने में कोई विशेष आयास या विशेष श्रम भी नहीं है, जो भगवत्कृपा से सहज ही प्राप्त हो सकता है, जिसकी प्राप्ति के लिए साधन भी बड़े सुगम है और उन साधनों के करते
समय भी अर्थात परमेश्वर के भजन-ध्यान, सत्संग-स्वाध्याय
आदि साधन करने के काल में भी सुख,शांति,प्रसन्नता और आनंद प्रत्यक्ष देखने में आता है | अत: बुद्धिमान
मनुष्य को उचित है कि वह ऐसे परमानन्द स्वरुप परमात्मा को प्राप्त करने के लिए
अपने जीवन को उत्तरोतर उन्नत बनाते हुए- एक क्षण भी व्यर्थ न जाये, इसका प्रतिक्षण ध्यान रखते हुए कटिबद्ध होकर प्रयत्न करे | इस प्रकार दिन-
रात भजन में लगे रहना ही जीवन में यथार्थ ज्योति जगाना है- नित्य सुखरूप प्रकाश का
विस्तार करना है | यही सच्ची दिवाली का सच्चा आनंद है |
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
जयदयाल गोयन्दका, तत्व
चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस
गोरखपुर