कवि ने कहा है –
‘जिसके अत्यंत मनोहारिणी स्त्रियाँ है, अनुकूल मित्र है, बड़े ही सुयोग्य
बंधू-बांधव है, प्रेम भरी मीठी वाणी बोलने वाले सेवक गण है तथा जिसके घर में अनेको
हाथियो के समूह चिंघाड़ रहे है और तीव्र वेग वाले घोड़े हिनहिना रहे है, ऐसे पुरुषो की भी जब आँख मुँद जाती है, तब न कोई भी व्यक्ति काम आता है और न वस्तु उस समय उसके काम ही आ सकती है |’
इस धन-ऐश्वर्य
की तो बात ही क्या है, यह शरीर भी
हमारे साथ नहीं जा सकता, यहीं भस्म हो
जाता है | फिर कौन बुद्धिमान मनुष्य संसार के इस नाशवान पदार्थो के संग्रह और
इनके सेवन से अपनी आयु को नष्ट करेगा | फिर हम देखते है कि ये धनैश्वर्य आदि पदार्थ तो इसी जन्म में नष्ट हो
जाते है | आज का धनी कल रास्ते का कंगाल हो जाता है | अतएव इनके लिए
परलोक की बात ही सोचना मुर्खता है | ऐसी अवस्था में इनके संग्रह एवं सेवन में मानव-जीवन का समय व्यय करना
जीवनका भयानक दुरूपयोग ही है | धन को ही लीजिये | इसके उपार्जन में कितना क्लेश है| झूठ, कपट, चोरी, बेईमानी और
लूट-खसोट करके अन्याय से कमाया हुआ धन परिणाम में इस लोक और परलोक में तो दुखरूप
है ही: सरकारी कानून की रक्षा करते हुए न्याय और धर्म के अनुसार धन का उपार्जन
करने में कितना भारी परिश्रम है, इस पर ध्यान
देना चाहिए | फिर धन के संचय और संरक्षण में भी महान क्लेश है तथा इसके वियोग में
तो अत्यंत कष्ट होता है |
श्रीमद्भागवत
में कहा है –
‘धनोपार्जन के साधन में, उसकी प्राप्ति में , उसके बढ़ने में, उसके संरक्षण में, उसके खर्च हो जाने
में, उसके उपभोग करने में और किसी भी प्रकार से नष्ट हो जाने में मनुष्य को
महान परिश्रम,त्राश (भय), चिंता और चित्त का भ्रम होता है |’ (११ | १३ | १७) ....... शेष अगले ब्लॉग में
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड
६८३, गीताप्रेस
गोरखपुर