※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

* दीपावली की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ *




* दीपावली पर चेतावनी *

गत ब्लॉग से आगे......

नचिकेता को उपदेश देते हुए यमराज कहते है 
उठो जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के पास जाकर उस ज्ञान को प्राप्त करो क्योंकि तत्वज्ञ पुरुष उस मार्ग को छुरे की तीक्ष्ण और दुस्तर धार के समान दुर्गम बतलाते है |’ (कंठ० १||१४)
इसलिये जब तक मृत्यु दूर है,वृद्धावस्था नहीं आई  हैशरीर रोगाक्रांत होकर जर्जर नहीं हो गया हैउसके पहले-पहले ही आत्मकल्याण का कामकर लेना चाहिये नहीं तो पीछे अत्यंत पश्चाताप करने पर भी कोई काम सिद्ध नहीं होगा |
श्री तुलसीदास जी ने कहा है 

सो परत्र दुःख पावई सिर धुनि धुनि पछिताई |
कालही कर्मही ईश्वरही मिथ्या दोष लगायी ||

अत: पहले ही सावधान हो जाना चाहिये इन ऐश-आरामस्वाद-शौकीनीभोग-विलास के पदार्थो में फँसकर इनके सेवन में अपनी बहुमूल्य आयु को बिताना तो जीवन को मिट्टी में मिला कर नष्ट करना है इन विषयों में प्रतीत होने वाला सुख वास्तव में सुख नहीं है | हमे भ्रम के कारण दुःख ही सुख रूप से भास रहा है इसलिये कल्याणकामी विवेकी मनुष्य को उचित है कि इन सबको धोखे की टट्टी समझ कर दूर से ही त्याग दे |

गीता में भगवान 
जो ये इन्द्रियो तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैवे यद्यपि विषयी पुरुषो को सुख रूप भासते हैतो भी दुःख के ही हेतु है और आदि अन्त वाले अर्थात अनित्य है;इसलिये हे अर्जुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उसमे नहीं रमता |’ (गीता ५|२२)

योगदर्शन में कहा है 
परिणामदुःखताप दुःखसंस्कार दुःख- आदि अनेको दुखो से मिश्रित होने तथा सात्विकराजसतामस वृतियो में विरोध होने से भी विवेकी पुरुषो की दृष्टि में सम्पूर्ण विषय सुख दुखरूप ही है |’ (साधनपाद १५)
यदि कोई मनुष्य अज्ञानवश इस विषय सुख को सुख भी माने तो विचार करने पर मालूम हो जायेगा कि यह सुख कितना अस्थिर है देशकाल और वस्तु से परिछिन्न होने के कारण सर्वथा क्षणभंगुरविनाशशील और अत्यंत अल्प ही है इसलिये तो बुद्धिमान नचिकेता ने यमराज की अनेक प्रलोभन देने पर भी उनसे यही कहा 
हे यमराज ! ये समस्त भोग कल रहेंगे या नहीं’ इस प्रकार के सन्देह युक्त एवं सम्पूर्ण इन्द्रियों के तेज को जीर्ण करने वाले है यही क्यायह सारा जीवन भी बहुत थोडा ही है इसलिये ये आपके वाहन और नाच-गान आपके पास ही रहे , मुझे इनकी आवश्यकता नहीं है |’ (कंठ० १||२६)
यह तो इन जीवन-काल में इन भोगो से मिलने वाले सुख की बात है मरने के बाद तो इनमे से कोई भी पदार्थ किसी भी हालत में किंचितमात्र भी किसी के साथ जा ही नहीं सकता |.......शेष अगले ब्लॉग में

जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर