हिंदू सनातन धर्म में अत्यंत छोटे से लेकर बहुत बड़े
तक सभी कार्यो का धर्म से सम्बंध है | हिन्दू का जीवन धर्ममय है | उसका जन्मना-मरना,
खाना-पीना, सोना-जागना, देना-लेना, उपार्जन करना और त्याग करना- सभी कुछ धर्म
सांगत होना चाहिए | धर्म से बाहर उसकी कोई क्रिया नहीं होती | इस धर्म का तत्व ही
वर्णाश्रम-धर्म में भरा है | वर्णाश्रम-धर्म हमे बतलाता है की किसके लिए किस समय,
कौन- सा कर्म किस प्रकार करना उचित है | और इसी कर्म-कौशल से हिन्दू अपने इहलौकिक
जीवन को सुखमय बिता कर अपने सब कर्म भगवान् के अर्पण करता हुआ अंत में मनुष्य-जीवन
के परम ध्येय परमात्मा को प्राप्त कर सकता है | इस धर्ममय जीवन में चार वर्ण और उन
चार वर्णों में धर्म की सुव्यवस्था रखे के लिए सबसे प्रथम ब्राह्मण का अधिकार और
कर्तव्य माना गया है | ब्राह्मण धर्म-ग्रंथो की रक्षा, प्रचार और विस्तार करता है और उसके अनुसार तीनो वर्णों से कर्म
कराने के व्यवस्था करता है | इसी से हमारे धर्मग्रंथो का सम्बंध आज भी ब्राह्मण जाति से है और आज भी
ब्राह्मण जाति धर्मग्रंथो के अध्ययन के लिए संस्कृत भाषा पढने में सबसे आगे है |
यह स्मरण रखना चाहिए की संस्कृत अनादि भाषा है और सर्वांगपूर्ण है | संस्कृत के
सामान वस्तुतः सुसंकृत भाषा दुनिया और कोई है ही नहीं | आज जो संस्कृत की अवहेलना
है उसका कारण यही है की संस्कृत राजभाषा तो है ही नहीं, उसे राज्य की और से यथा
योग्य आश्रय भी प्राप्त नहीं है और तब तक होना बहुत ही कठिन भी है जब तक
हिन्दू-सभ्यता के प्रति श्रधा रखने वाले संस्कृत के प्रेमी शासक न हो | इस लिए जब
तक वैसा नहीं होता, कम-से-कम तब तक प्रत्येक धर्म-प्रेमी पुरुष का कर्तव्य होता है
की वह सनातन वैदिक वर्णाश्रम-धर्म की रक्षा के हेतु भूत ब्राह्मणत्व की और परम धर्म रूप संस्कृत ग्रंथो
की एवं संस्कृत भाषा की रक्षा करे |
शेष अगले ब्लॉग में.......
जयदयाल गोयन्दका,तत्व चिंतामणि, कोड ६८३,गीताप्रेस
गोरखपुर