पर-देशीय और पर-धर्मीय लोगो की
सभ्यता,भाषा,आचरण,व्यवहार,रहन-सहन और पोशाक-पहनावा आदि के अनुकरण ने
वर्णाश्रम-धर्म की शिथिलता में बड़ी सहायता दी है | पहले तो मुसलमानी शासन में हम
लोग उनके आचारो की ओर झुके-किसी अंश में उनके आचार-व्यवहार की नक़ल की, परन्तु उस
समय तक हमारी अपने शास्त्रो में, अपने पूर्वजो में, अपने धर्म में, अपने नीति में श्रद्धा थी, इससे उतनी हानि नहीं हुई, परन्तु वर्तमान पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता और
संस्कृति के आँधी में तो हमारी आंखे सर्वथा बंद सी हो गयी | हम मनो आँखें मूँद कर-
अंधे होकर उनकी नक़ल करने लगे है | इससे वर्णाश्रम-धर्म में आज कल बहुत शिथिलता
आ गयी है | और यदि यही गति रही तो कुछ समय में वर्णाश्रम-धर्म का बहुत ही ह्रास हो
जायेगा और हमारा ऐसा करना अपने ही हाथों
अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने के समान होगा | धर्म और नीति के त्याग से एक बार
भ्रमवश चाहे कुछ सुख-सा प्रतीत हो,परन्तु वह सुख की चमक उस बिजली के प्रकाश की चमक
के समान है जो गिर कर सब कुछ जला देती है | धर्म और नीति का त्याग करने वाला रावण,
हिरन्यकस्यपू, कंस और दुर्योधन आदि की भी एक बार कुछ उन्नति-सी दिखायी दी थी,
परन्तु अंत में उनका समूल विनाश हो गया |
शेष अगले ब्लॉग में.......
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि,
कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर