※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है

हिंदू जाति की आज जो दुर्दशा है,वह पराधीन है, दीन है, दुखी है और सभी प्रकार से अवनति है; इसके कारण पर विचार करते समय आजकल कुछ भाई ऐसा मत प्रकट किया करते है की वर्णाश्रम-धर्म के कारण ही हिन्दू जाति की ऐसी दुर्दशा हुई है |
वर्णाश्रम-धर्म न होता तो हमारी ऐसी स्थिति न होती | परन्तु विचार करने पर मालूम होता है की इस मत को प्रकट करने वाले भाईओ ने वर्णाश्रम-धर्म के तत्व को वस्तुत: समझा ही नहीं है | सच्ची बात तो यह है की जब तक इस देश में वर्ण आश्रम-धर्म का सुचारू रूप से पालन होता था | तब तक देश स्वाधीन था तथा यहाँ पर प्राय: सभी  प्रकार की सुख-समृद्धि थी | जबसे वर्णाश्रम-धर्म के पालन में अवेहलना होने लगी, तभी से हमारी दशा बिगड़ने लगी | इतने पर भी वर्णाश्रम-धर्म की  दृढता ने ही हिन्दू जाती को बचाए रखा है | वर्णाश्रम  न होता और उसपर हिन्दू जाती की आस्था न होती तो शताब्दियों में होने वाले आक्रमणों से और विजेताओ के प्रभाव से हिन्दू जाती से अब तक नष्ट हो गयी होती |

पर-देशीय और पर-धर्मीय लोगो की सभ्यता,भाषा,आचरण,व्यवहार,रहन-सहन और पोशाक-पहनावा आदि के अनुकरण ने वर्णाश्रम-धर्म की शिथिलता में बड़ी सहायता दी है | पहले तो मुसलमानी शासन में हम लोग उनके आचारो की ओर झुके-किसी अंश में उनके आचार-व्यवहार की नक़ल की, परन्तु उस समय तक हमारी अपने शास्त्रो में, अपने पूर्वजो में, अपने धर्म में, अपने नीति में श्रद्धा  थी, इससे उतनी हानि नहीं हुई, परन्तु वर्तमान पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति के आँधी में तो हमारी आंखे सर्वथा बंद सी हो गयी | हम मनो आँखें मूँद कर- अंधे होकर उनकी नक़ल करने लगे है | इससे वर्णाश्रम-धर्म में आज कल बहुत शिथिलता आ गयी है | और यदि यही गति रही तो कुछ समय में वर्णाश्रम-धर्म का बहुत ही ह्रास हो जायेगा और हमारा ऐसा  करना अपने ही हाथों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने के समान होगा | धर्म और नीति के त्याग से एक बार भ्रमवश चाहे कुछ सुख-सा प्रतीत हो,परन्तु वह सुख की चमक उस बिजली के प्रकाश की चमक के समान है जो गिर कर सब कुछ जला देती है | धर्म और नीति का त्याग करने वाला रावण, हिरन्यकस्यपू, कंस और दुर्योधन आदि की भी एक बार कुछ उन्नति-सी दिखायी दी थी, परन्तु अंत में उनका समूल विनाश हो गया |

शेष अगले ब्लॉग में.......

जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर