मनु महाराज ने कहा है -
अधियिरनस्त्र्यो वर्णाः स्वकर्मस्था दिविजातय: |
प्रब्रुयाद ब्राह्मणस्त्वेसाम् नेतराविति निश्चयः || (मनु १० | १)
“अपने-अपने कर्मो में लगे हुए (ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य-तीनो) द्विजाती वेद पढ़े परन्तु
इनमे से वेद पढावे ब्राह्मण ही, क्षत्रिय वैश्य नहीं यह निश्चय है|”
इससे यह सिद्ध होता है की ब्राह्मण के बिना वेद की शिक्षा और कोई नहीं दे सकता
और वेद के बिना वैदिक वर्णाश्रम-धर्म नहीं रह सकता, इसलिए ब्राह्मण की रक्षा
अत्यंत आवश्यक है|
शास्त्रों में ब्राह्मण को सबसे श्रेष्ठ बतलाया है|ब्राह्मण की बतलाई हुई
विधि से ही धर्म, अर्थ, काम , मोक्ष ,चारों की सिद्धि मानी गयी है| ब्राह्मण का महत्व बतलाते हुए शास्त्र कहते है –
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद बाहु राजन्य: क्रतः|
ऊरु तदस्य यद्वैश्य पदाभ्यां शूद्रो अजायत||(यजुर्वेद ३१ | ११)
‘श्री
भगवान के मुख से ब्राह्मण की, बाहू से क्षत्रिय की, उरु से वैश्य की और चरणों से
सूद्र की उत्पति हुई है |’
‘उत्तम अंग से (अर्थात भगवान के श्री मुख से) उत्पन्न होने तथा सबसे पहले उत्पन्न
होने से और वेद के धारण करने से ब्राह्मण इस जगत का धर्म स्वामी होता है| ब्रह्मा
ने तप करके हव्य-कव्य पहुचाने के लिए और सम्पूर्ण जगत की रक्षा के लिए अपने मुख से
सबसे पहले ब्राह्मण को उत्पन्न किया |’(मनु १ | ९३-९४)
‘जाति की श्रेष्ठता से, उत्पत्ति स्थान की श्रेष्ठता से, वेद के पढ़ने-पढ़ाने
आदि नियमो को धारण करने से तथा संस्कार की विशेषता से ब्राह्मण सब वर्णों का प्रभु
है |’ (मनु० १० | ३)
‘समस्त भूतो में स्थावर (वृक्ष) श्रेष्ठ है | उनसे सर्प आदि कीड़े श्रेष्ठ है
| उनसे बोध्युक्त प्राणी श्रेष्ठ है | उनसे मनुष्य और मनुष्यों में प्रथमगण श्रेष्ठ है | प्रथमगण से गन्धर्व और गन्धर्वो से सिद्धगण,सिद्धगण से देवताओ के
भर्त्य किन्नर आदि श्रेष्ठ है | किन्नरों और असुरो की अपेक्षा इन्द्र आदि देवता श्रेष्ठ है | इन्द्रादि देवताओ से दक्ष आदि ब्रह्मा के पुत्र श्रेष्ठ है | दक्ष
आदि की अपेक्षा शंकर श्रेष्ठ है और शंकर ब्रह्मा के अंश है इसलिए शंकर से ब्रह्मा श्रेष्ठ है | ब्रह्मा मुझे अपना परम आराध्य परमेश्वर मानते है| इसलिए ब्रह्मा से मै श्रेष्ठ हुं और मैं द्विज देव ब्राह्मण को अपना देवता या पूजनीय समझता हु|
इसलिए ब्राह्मण मुझसे भी श्रेष्ठ है | इस कारण ब्राह्मण सर्व पूजनीय है, हे
ब्राह्मणों ! में इस जगत में दूसरे किसी की ब्राह्मणों के साथ तुलना भी नहीं करता
फिर उससे बढ़ कर तो किसी को मान ही कैसे सकता हु| ब्राह्मण क्यों श्रेष्ठ है?
इसका उत्तर तो यही है की मेरे ब्राह्मण रूप मुख में जो श्रद्धापूर्वक अर्पण किया
जाता है (ब्राह्मण भोजन कराया जाता है) उससे मुझे परम तृप्ति होती है; यहाँ तक की
मेरे अग्निरूप मुख में हवन रूप करने से भी मुझे वैसी तृप्ति नहीं होती |’ (श्रीमदभागवत ५ | ५ | २१-२३)
उपर्युक्त शब्दों से ब्राह्मण के स्वरुप और महत्व का अच्छा परिचय मिलता है
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शेष अगले ब्लॉग में.......
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस
गोरखपुर