‘स्थावर जीवो में
प्राणधारी श्रेष्ठ है,प्राणधारियो में बुद्धिमान,बुद्धिमानों में मनुष्य और
मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ कहे गए है|ब्राह्मणों में विद्वानों, विद्वानों
में कृत बुद्धि (अर्थात जिनकी शास्त्रोक्त कर्म में बुद्धि है)कृत बुद्धियो में
शास्त्रोक्त कर्म करने वाले और उनमे भी ब्रह्म्वेता ब्राह्मण श्रेष्ठ है | उत्पन्न
हुआ ब्राह्मण पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ है; क्योकि वह सब प्राणियो के धर्म समूह की
रक्षा के लिए समर्थ माना गया है | (मनु० १ | ९६,९७,९८)
ब्राह्मणों की निंदा का निषेध करते हुए भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते है –
‘हे राजन ! जो अज्ञानी
मनुष्य ब्राह्मणों की निंदा करते है, मैं सत्य कहता हूँ की वे नष्ट हो जाते, इसमें
कुछ भी संदेह नहीं है |’(महा अनु० ३३ | १८)
‘ब्राह्मणों की निंदा कभी नहीं सुननी चाहिये|यदि कहीं ब्राह्मण-निंदा होती हो तो वहाँ या तो नीचा सिर करके चुप चाप बैठा रहे अथवा वहाँ से उठ कर से चला जाए | इस पृथ्वी पर ऐसा कोई भी मनुष्य न जन्मा है और न जन्मेगा ही जो ब्राह्मणों से विरोध करके सुख से जीवन व्यतीत कर सके |’(महा अनु० ३३|२५-२६)
इस पर यदि कोई कहे की ब्राह्मणों की जो इतनी महिमा कही जाती है, यह उन ग्रंथो के कारण ही तो है, जो प्राय ब्राह्मणों के बनाये हुए है और जिनमे ब्राह्मणों ने जान बूझ कर अपने स्वार्थ साधन के लिए नाना प्रकार के रास्ते खोल दिए है | तो इसका उत्तर यह है कि ऐसा करना वस्तुतः शास्त्र-ग्रंथो से यथार्थ परिचय न होने के कारण ही है | शास्त्रो और प्राचीन ग्रंथो के देखने से यह बात सिद्ध होती है, ब्राह्मण ने तो त्याग ही त्याग किया है | राज्य क्षत्रियो के लिए छोड़ दिया,धन के उत्पत्ति स्थान कृषि,गो रक्षा और वाणिज्य आदि को और धन-भण्डार को वैश्यो के हाथ दे दिया | शारीरिक श्रम से अर्थोपार्जन करने का कार्य शूद्रों के हिस्से में आ गया है | ब्राह्मणों ने तो अपने लिए रखा केवल संतोष से भरा त्याग पूर्ण जीवन |
इसका प्रमाण शास्त्रो के
वे शब्द है, जिनमे ब्राह्मण की वृत्ति का वर्णन है –
‘ब्राह्मण ऋत, अमृत,मृत,प्रमृत, या सत्यानृत से अपना जीवन बितावे परन्तु श्रवृति अर्थात सेवावृति-
नौकरी न करे| उञ्छ और शील को ऋत को जानना चाहिये | बिना मांगे मिला हुआ अमृत है |
मांगी हुई भीक्षा मृत कहलाती है और खेती को प्रमृत कहते है|वाणिज्य को सत्यानृत
कहते है, उससे भी जीविका चलाई जा सकती है किन्तु सेवाको श्रवृति कहते है इसलिए उसका त्याग कर देना चाहिये |’ (मनु०
४ | ४-६ )
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जयदयाल गोयन्दका, तत्वचिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर