गत ब्लाग से आगे....
उपर्युक्त वृत्तियो में ब्राह्मण के लिये उञ्छ और शील ये दो वृत्तिया सबसे उत्तम मानी गई है| वेद पढाना,यज्ञ करवा कर दक्षिणा ग्रहण करना तथा बिना याचना के दान लेना भी बहुत उत्तम अमृत
के तुल्य कहा गया है एवं भिक्षावृत्ति भी
उनके लिये धर्मसंगत है| ब्राह्मण धर्म का पालन करने वाले ब्राह्मणों के लिये
अधिक-से-अधिक साल भर के अन्न-संग्रह करने की आज्ञा दी गयी है| जो एक मास से अधिक
का अन्न-संग्रह नहीं करता उसको उससे
श्रेष्ठ माना है,उससे श्रेष्ठ तीन दिन के
लिये अन्न-संग्रह करने वाले को, और उससे भी श्रेष्ठ केवल एक दिन का
अन्न-संग्रह करने वाले को बताया गया है|
आपत्तिकाल में क्षत्रिय या वैश्य की वृत्ति से भी ब्राह्मण अपना जीविका चलावे तो वह निंदनीय नहीं है | धर्मशास्त्र का यही आदेश है| विडालवृत्ति और वकवृत्ति ये दो वृत्तियाँ वर्जित है, इन दो वृत्तियो को और श्रवृत्तियो को छोड़कर उपर्युक्त किसी भी वृत्ति से जीविका चलाने वाला ब्राह्मण पूजनीय है और सेवनीय है| ब्राह्मणों की जीवननिर्वाह वृत्ति इतनी कठिन है,यही नहीं है ब्राह्मण के जीवन का उद्देश्य और उसके जीवन का उद्देश्य और उसके जीवन की स्थिति कितनी कठोर, तपोमयी और त्यागपूर्ण है, यह भी देखिये !
‘उन ब्राह्मणों ने इस लोक में अति सुन्दर और पुरातन मेरी वेद रूपा मूर्ति को अध्ययनादि द्वारा धारण किया है | उन्ही में परम पवित्र सत्व गुण, शम, दम, सत्य, अनुग्रह, तप, सहनशीलता और अनुभव आदि मेरा गुण विराजमान है | वे ब्राह्मण द्वार-द्वार पर भिक्षा मांगने वाले नहीं होते, साधारण मनुष्य से कुछ माँगना तो दूर रहा, देखो मैं अनंत हूँ और सर्वोत्तम परमेश्वर हूँ एवं स्वर्ग और मोक्ष का स्वामी हूँ किन्तु वे मुझसे भी कुछ नहीं चाहते (उनके आगे राज्य आदि वस्तुए केवल तुच्छातीतुच्छ पदार्थ ही नहीं, विषतुल्य है|) वे अकिंचन (सर्त्यागी) महात्मा विप्रगण मेरी भक्ति में ही संतुस्ट रहते है|’(श्रीमदभागवत ५ |५|२४-२५)
‘ब्राह्मण की देह विषय सुख के लिये कदापि नहीं है, वह तो सदा-सर्वदा तपस्या का क्लेश सहने, धर्म का पालन करने और अंत में मुक्ति के लिये ही उत्पन्न होती है|’(वृहदधर्म पुराण,उतर खंड २ | ४४)
इसी प्रकार भागवत में कहा है –
‘ब्राह्मण का यह शरीर क्षुद्र विषय भोगो के लिये नहीं
है, यह तो जीवन भर कठिन तपस्या और अंत में आत्यंतिक सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति के
लिये है|’(श्रीमदभागवत ११|१७|४२)
इससे पता चलता है की ब्राह्मण का जीवन कितना महान तप
से पूर्ण है| वह अपने जीवन को साधनमय रखता है |.......शेष अगले ब्लॉग में
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर