गत ब्लाग से आगे.......
जिस मान-सम्मान को सब लोग चाहते है, ब्राह्मण उस मान से सदा डरता है और अपमान का स्वागत करता है –
‘ब्राह्मण को चाहिये कि वह सम्मान से सदा विष के समान
डरता रहे और अपमान की अमृत के समान इच्छा करता रहे |’ (मनु० २ | १६२)
इतना ही नहीं, उसकी साधना
में जरा-सी भूल भी क्षम्य नहीं है –
‘जो ब्राह्मण न प्रातःकाल की संध्या करता है और न सायं
संध्या करता है वह ब्राह्मणों के सम्पूर्ण कर्मो से शुद्र के समान बहिष्कार कर
देने योग्य है |’ (मनु० २ | १०३)
ऐसे तप, त्याग और सदाचार की मूर्ति ब्राह्मणों को स्वार्थी बतलाना अनभिज्ञता के साथ उस पर अयथार्थ दोषारोपण करने के अपराध के सिवा और क्या है ? अतएव धर्म पर श्रद्धा रखने वाले क्षत्रिय,वैश्य, शूद्र प्रत्येक का यह कर्तव्य होना चाहिये कि वे दान, मान, पूजन आदि से ब्राह्मणों का सत्कार करे, सेवा और सद्व्यवहार के द्वारा ब्राह्मणों को अपने ब्राह्मणत्व के गौरव की बात याद दिला कर उन्हें ब्राह्मणत्व की रक्षा के लिए उत्साहित करे | शास्त्रीय कर्म, षोडश संस्कार (इनमे अधिक-से-अधिक जितने हो सके), सकाम-निष्काम कर्मअनुष्ठान, देवपूजन आदि के द्वारा ब्राह्मणों की सम्मान रक्षा और उनकी आजीविका की सुविधा कर दे, स्वयं ब्राह्मणों की जीविका कदापि न करे, जहाँ तक हो सके संस्कृत भाषा का आदर करे और अपने बालको को अधिकारानुसार ब्राह्मणों के द्वारा संस्कृत का जानकार बनावे, संस्कृत पाठशालाओ में वृत्ति देकर ब्राह्मण-बालको को पढावे | धर्म ग्रंथो में श्रद्धा करके धर्म अनुष्ठान का अधिकारानुसार प्रचार करे और शास्त्रोक्त रीती से जिस किसी प्रकार से भी ऐसे चेष्टा करते रहे, जिसमे ब्राह्मणों को आजीविका की चिंता न हो, उनके शास्त्रज्ञ होने से उनका आदर बढे और ब्राह्मणत्व में उनकी श्रद्धा बड़े | क्योंकि ब्राह्मणत्व की रक्षा के लिये – जो वर्णाश्रम-धर्म का प्राण है-स्वयं भगवान पृथ्वी-तल पर अवतार लिया करते है |
ब्राह्मणसेवा और
ब्राह्मणों को दान देने का क्या महत्व है, उससे किस प्रकार अनायास ही अर्थ,धर्म,मोक्ष की सिद्धि होती है | इसपर नीचे उद्धरित थोड़े-से शास्त्र वचनों को देखिये-
महाराज पृथु कहते है –
‘सबके ह्रदय में स्थित,ब्राह्मण-प्रिय एवं स्वयं प्रकाशमान ईश्वर हरि जिसकी
सेवा करने से यथेष्ट संतोष को प्राप्त होते है उस ब्राह्मण कुल की ही भागवत धर्म
में तत्पर होकर विनीत भाव से सब प्रकार सेवा करो |ब्राह्मण कुल के साथ नित्य सेवा रूप सम्बंध होने से
शीघ्र मनुष्य का चित शुद्ध हो जाता है | तब अपने-आप ही परम शांति अर्थात मोक्ष मिलता है | भला ऐसे
ब्राह्मणों के मुख से बढ़ कर दूसरा कौन देवताओ का मुख हो सकता है ? ज्ञान रूप,सबके
अंतर्यामी अनंत हरि की भी तृप्ति भी ब्राह्मण मुख में ही होती है | तत्वज्ञानी
पण्डितो द्वारा पूजनीय इन्द्रादि देवो का नाम लेकर श्रद्धा पूर्वक ब्राह्मण मुख
में हवन किये हुए हविष्य को श्रीहरि जितनी प्रसन्नता के साथ ग्रहण करते है उतनी
प्रसन्नता के साथ अचेतन अग्नि मुख में डाली हुई हविष्य को
नहीं स्वीकार करते |
जिसमे यह सम्पूर्ण विश्व आदर्श की भांति भासित होता है उसी नित्य
शुद्ध सनातन वेद को ये ब्राह्मण लोग श्रद्धा,तपस्या, मंगल कर्म, मौन (मननशीलता या भगवद्विरोधी बातो का
त्याग),संयम (इन्द्रियो का दमन) एवं समाधी (चित की भगवान में
स्थिति ) करते हुए यथार्थ अर्थ के देखने के लिये नित्य प्रति धारण करते है अर्थात
अध्ययन करते रहते है |’.......शेष अगले ब्लॉग में
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर