वाणी को संयत और उन्नत बनाने के
लिए वाणी का तप बतलाया गया है-
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् |
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते || (गीता १७/१५)
‘जो उद्वेग न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण
है तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन-पाठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है -वही
वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है |’
मन को उन्नत बनाने के लिए मानसिक
तप बतलाया गया है-
मन:प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः |
भावसंशुद्धिरित्येतत् तपो मानसमुच्यते || (गीता १७/१६)
‘मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करनेका स्वभाव,
मनका निग्रह और अन्त:करण के भावों की भलीभाँति पवित्रता- इस प्रकार यह मन सम्बन्धी
तप कहा जाता है |’
इसी प्रकार बुद्धि को उन्नत बनाने
के लिए सात्विक ज्ञान और सात्विकी बुद्धि का वर्णन किया गया है-
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययामीक्षते |
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् || (गीता १८/२०)
‘जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी
परमात्मा को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तो तू सात्त्विक जान
|’
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये |
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी || (गीता १८/३०)
‘हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग को,
कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है, वह
बुद्धि सात्त्विकी है |’
इसके विपरीत राजस-तामस ज्ञान का अ० १८ श्लोक २१-२२
में और राजसी-तामसी बुद्धि का अ० १८ श्लोक ३१-३२ में त्याग करने के उद्देश्य से
वर्णन किया गया है |
दुर्गुण,
दुराचार, दुर्व्यसन मनुष्य की उन्नति में महान हानिकर हैं, अतः उनको आसुरी सम्पदा
बतलाकर उनका सर्वथा त्याग करने के लिए कहा गया है ( देखिये गीता, अ० १६,
श्लोक ४ से २१ तक ) |
इसके सिवा उन छब्बीस गुणों और
आचरणों को, जो मनुष्य की उन्नति में मूल कारण हैं , सर्वथा उपादेय और मुक्ति के
साधन बतलाकर उनका दैवी सम्पदा के नाम से वर्णन किया गया है-
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः |
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ||
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् |
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ||
तेज: क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता |
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत || (गीता १६/१-३)
‘भयका सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता,
तत्त्वज्ञान के लिए ध्यानयोग में निरंतर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियों
का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का
आचरण एवं वेदादि शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन,
स्वधर्म-पालन के लिए सहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता, मन,
वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना
अपकार करनेवालेपर भी क्रोध का न होना, कर्मों में स्वार्थ और कर्तापन के अभिमान का
त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात् चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की निन्दादि न
करना, सब भूत-प्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने
पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा
और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, शौचाचार, सदाचार एवं किसीमें भी
शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव –ये सब अर्जुन ! दैवी
सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुषों के लक्षण हैं |’ ......शेष अगले ब्लॉग में
जयदयाल गोयन्दका ‘गीता पढ़ने के लाभ’ पुस्तक से, कोड
नं०३०४
