※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

* गीता पढ़ने के लाभ *


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न्याय प्राप्त होने पर गीता युद्ध करने की ही आज्ञा देती है; किन्तु राग-द्वेषरहित होकर समभाव से | भगवान अर्जुन से कहते हैं-

सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ||  (गीता २/३८)

‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पापको नहीं प्राप्त होगा |’ 

   इसमें कैसी अद्भुत अलौकिक धीरता, वीरता, गम्भीरता और कुशलता का रहस्य भरा हुआ है |
   
   फल, आसक्ति, अहंता, ममता से रहित होकर संसार के हित के उद्देश्य से कर्तव्य-कर्म करना गीता का उपदेश है | गीतामें बताए हुए ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग-सब साधनों का प्रधान उद्देश्य यह है कि सबका परम हित हो | इस उद्देश्य से स्वार्थ और अभिमान से रहित होकर सम्पूर्ण प्राणियों के साथ त्याग, समता और उदारतापूर्वक प्रेम और विनययुक्त व्यवहार  करना चाहिए | उच्चकोटि के साधक की भी समता कसौटी है ( देखिये गीता २/१५, ३८; ४८) एवं सिद्ध पुरुष की भी कसौटी समता है (देखिये गीता ५/१८-१९; ६/८-९; १२/१८-१९; १४/२४-२५) | अतः सम्पूर्ण क्रियाओं, पदार्थों, भावों और प्राणियों में समभाव रखना- यह गीता का प्रधान उपदेश है |
   
   गीता में सभी बातें युक्तियुक्त हैं | गीता का सिद्धांत है कि न अधिक सोये, न अधिक जागे, न अधिक खाये और न लंघन ही करे अर्थात सब कार्य युक्तियुक्त करे, क्योंकि उचित भोजन और शयन न करने से योग की सिद्धि नहीं होती | इसी से भगवानने कहा है-

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु |
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा || (गीता ६/१७)

‘दुखों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवालेका, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करनेवाले का और यथायोग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है |’
  
   गीता में सात्त्विक, राजस्, तामस, क्रिया, भाव और पदार्थ का वर्णन किया गया है | उनमें सात्त्विक धारण करने के लिए और राजस-तामस त्याग करने के लिए कहा गया है |
   
   यद्यपि उत्तम आचरण और अंतःकरण का उत्तम भाव-दोनों को ही गीता ने कल्याण का साधन माना है, किन्तु प्रधानता भाव को दी गयी है |
   
   इस तरह अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम रहस्य युक्त एवं महत्त्वपूर्ण भाव गीता में भरे हुए हैं | हमलोग धन्य हैं, जो हमें अपने जीवनकाल में गीता –जैसा सर्वोत्तम ग्रन्थ देखने-सुनने और पढ़ने-पढ़ाने के लिए मिल रहा है | हमें इस सुअवसर से लाभ उठाना चाहिए-गीता का तत्परता के साथ श्रद्धा-प्रेमपूर्वक अध्ययन करना चाहिए |
   
   गीता का अध्ययन करने वाले को चाहिए कि वह उसे बार-बार पढ़े, हृदयंगम करे और मनमें धारण करे एवं उसके प्रत्येक शब्द का इस प्रकार मनन करे कि वह उसके अंतःकरण में प्रवेश कर जाय | भगवान के शरण होकर इस प्रकार अध्ययन करने से भगवत्कृपा से गीता का तत्त्व-रहस्य सहज ही समझ में आ सकता है, फिर उसके विचार और गुण तथा कर्म स्वयमेव गीता के अनुसार ही होने लगते हैं | गीता के अनुसार आचरण हो जाने से मनुष्य के गुण, आत्मबल, बुद्धि, तेज, ज्ञान, आयु और कीर्ति की वृद्धि होती है तथा वह परमपद स्वरुप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है |

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

जयदयाल गोयन्दका ‘गीता पढ़ने के लाभ’ पुस्तक से, कोड नं०३०४