※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

* गीता की सर्वप्रियता *


|| श्री हरि: ||

कुछ सज्जनों ने गीता के सम्बन्ध में कई प्रश्न किये है, उनके जो उत्तर उन्हें दिए गए हैं, वे सर्वोपयोगी होने से यहाँ लिखे जाते हैं -

प्रश्न गीता में अनेक आचार्यो की टीकाएँ हैं, उनमें से आप किस आचार्य की टीका  को उत्तम और यथार्थ मानते हैं?

उत्तर जो भगवत्प्राप्त महापुरुष हैं, उन सभी आचार्यों की टीका को उत्तम और यथार्थ मानता हूँ |


प्रश्न आचार्य तो अनेक हुए हैं,उनमें परस्पर बहुत ही मतभेद है,यहाँ तक कि आकाश-पाताल का अंतर है | स्वामी श्री शंकराचार्य जी अद्वैतवाद का प्रतिपादन करते है ं तो स्वामी श्री रामानुजाचार्य जी विशिष्टाद्वैत का | इस प्रकार अन्यान्य आचार्य विभिन्न तरह से प्रतिपादन करते हुए ही टीका लिखते हैं तो सभी टीकाऍ यथार्थ कैसे हो सकती हैं? सत्य तो एक ही हुआ करता है |

उत्तर तर्क की दृष्टि से जैसा आप कहते हैं,वह ठीक है | मान लें कि गीता पर एक सौ टीकाऍ हैं और सभी  टीकाऍ एक-दूसरे से भिन्न है तो उनमें प्रत्येक टीका शेष ९९ टीकाओं के विरुद्ध हो जाती है | इस न्याय से तो इत्थंभूत एक भी नहीं ठहरती | किन्तु किसी भी आचार्य की टीका के अनुसार उसका अनुयायी अच्छी प्रकार अनुष्ठान करे तो उससे उसे परमात्मा की प्राप्ति हो सकती हैं इस न्याय से सभी टीकाऍ ठीक है |


प्रश्न आप कौन-सी टीका को सर्वोपरि मानते हैं और किसके अनुयायी हैं ?

उत्तर मैं तो सभी को उत्तम मानता हूँ और मैं अनुयायी किसी एक का नहीं, सभी का अनुयायी हूँ | क्योंकि मैं प्राय: सभी से अच्छी बातें करता रहता हूँ और मैंने बहुत-सी टीकाओं से मदद ली है और ले रहा हूँ | सभी हमारे पूज्य हैं अत: मैं सभी को आदर की दृष्टि से देखता हूँ एवं किसी भी आचार्यकी की हुई टीका के अनुसार अनुष्ठान करने से परमात्मा की प्राप्ति मानता हूँ | किन्तु टीकाओं की अपेक्षा मूल को ही सर्वोत्तम मानता हूँ; क्योंकि कोई भी आचार्य मूल का विरोध नहीं करते, बल्कि भगवद्वाक्य होने से सब मूल का ही आदर और प्रशंसा करते है तथा मूल को आधार मान कर ही सब चलते हैं एवं उसी के अनुसार अन्य सभी को वे चलाना चाहते है | इसलिए आचार्यों की टीकाओं की अपेक्षा मूल ही सर्वोत्तम है |


प्रश्न स्वामी शंकराचार्य जी गीता का अद्वैतपरक अर्थ करते हैं और भक्तिमार्ग वाले द्वैतपरक, तो गीता का प्रतिपाद्य विषय ज्ञानयोग है या भक्तियोग अथवा कर्मयोग? एवं वे ऐसी खींचातानी करके प्रतिपादन ही करते हैं या उनकी ऐसी ही मान्यता है?

उत्तर उनकी अपनी-अपनी खींचातानी बतलाना तो उनकी नियत पर दोष लगाना है सो ऐसा कहना उचित नहीं | उनको गीता का जो अर्थ प्रतीत हुआ, वैसा उन्होंने लिखा है | यह गीता के लिए गौरव है कि सभी मत-मतान्तर वाले उसे अपनाते हैं | गीता ऐसा ही रहस्यमय ग्रन्थ है जो कि सभी को अपने ही भाव उसमें ओतप्रोत दीखते है;क्योकि वास्तव में गीता में ज्ञानयोग (अद्वैतवाद), भक्तियोग(द्वैतवाद) और कर्मयोग (निष्काम कर्म) सभी का  सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है | ......शेष अगले ब्लॉग में

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!