※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

* गीता पढ़ने के लाभ *

  ||  श्री हरी ||

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गीता के अध्ययन-अध्यापन और उसके अनुसार आचरण करने से अनेकों ऋषियों को और अर्जुन, संजय आदि गृहस्थों को उत्तम गति मिली | स्वामी श्रीशंकराचार्यजी, श्रीरामानुजाचार्यजी, श्रीज्ञानेश्वरजी आदि महानुभावो को सर्वमान्य लौकिक, पारमार्थिक श्रेष्ठ पदकी प्राप्ति हुई एवं महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक आदि को बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई | अतः गीता के अध्ययन, अध्यापन और उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य को इस लोक और परलोक में श्रेय की प्राप्ति होती है |
    
कोई भी मनुष्य क्यों न हो,जिसकी ईश्वरभक्ति में और गीताशास्त्र को सुनने में रूचि है,वही इसका अधिकारी है | ऐसे अधिकारी मनुष्य को गीता सुनानेवाला मनुष्य मुक्त हो जाता है | वह ईश्वरका अत्यन्त प्यारा बन जाता है | भगवान ने कहा है-

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः || (गीता १८/६८)
 
‘जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा-इसमें कोई संदेह नहीं है |’
 
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः |
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि || (गीता १८/६९)
 
‘उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं |’
   
अतः हमलोगों को गीताशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन श्रद्धा-भक्तिपूर्वक बहुत उत्साह और तत्परता के साथ करना चाहिए |
     
गीताके  अध्ययन करने का फल और महत्त्व वर्णन करते हुए स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
 
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः |
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मति: || (गीता १८/७०)
 
‘जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवादरूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा-ऐसी मेरी मान्यता है |’
   
अर्थ और भाव को समझकर गीता का अभ्यास करनेपर अन्य शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता नहीं रहती ! श्रीवेदव्यास जी ने कहा है-
 
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहैः |
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद् विनि:सृता || (महा०, भीष्म० ४३/१)
 
‘गीता का ही भलीभाँति गान करना चाहिए अर्थात् उसी का भलीभाँति श्रवण, कीर्तन,पठन, पाठन, मनन और धारण करना चाहिए, फिर अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है? क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान के साक्षात् मुखकमल से निकली हुई है |’
     
 यहाँ  ‘पद्मनाभ’ शब्द का प्रयोग करके श्रीवेदव्यासजी ने यह व्यक्त किया है कि यह गीता उन्हीं भगवान के मुखकमल से निकली है, जिनके नाभि-कमल से ब्रह्माजी प्रकट हुए और ब्रह्मा जी के मुख से वेद प्रकट हुए, जो सम्पूर्ण शास्त्रों के मूल हैं | अतः संसार में जितने भी शास्त्र हैं, उन सब शास्त्रों का सार गीता है-‘सर्वशास्त्रमयी गीता’ (महा०,भीष्म० ४३/२) | दुनिया में जो किसी भी धर्म को माननेवाले मनुष्य हैं, उन सभी को यह समानभाव से स्वधर्मपालन में उत्साह दिलाती है, किसी धर्म की निंदा नहीं करती | इसमें कहीं किसी संप्रदाय के प्रति पक्षपात नहीं है | ......शेष अगले ब्लॉग में 
 

जयदयाल गोयन्दका ‘गीता पढ़ने के लाभ’ पुस्तक से, कोड नं०३०४