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श्री हरि: ||
गत
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प्रश्न – कर्मयोग के साथ भक्तियोग और ज्ञानयोग, भक्तियोग के
साथ कर्मयोग और ज्ञानयोग तथा ज्ञानयोग के साथ कर्मयोग और भक्तियोग एक साथ रह सकते
है या नहीं?
उत्तर – कर्मयोग के साथ भक्तियोग और परमात्मा के स्वरुप का ज्ञान रह सकता है;
किन्तु अभेदोपासनारूप ज्ञानयोग उसके साथ एक काल में ही नहीं रह सकता;
क्योंकि कर्मयोग में भेद-बुद्धि और संसार की सत्ता रहती है तथा ज्ञान
योग में इससे विपरीत अभेद बुद्धि और संसार का अभाव रहता है | इसलिए कर्मयोग और ज्ञानयोग परस्पर-विरुद्ध भावयुक्त साधन होने से एक काल
में एक साथ नहीं रह सकते |
भक्तियोग
(भेदोपासना) के साथ कर्मयोग और परमात्मा के स्वरुप का ज्ञान रह सकता है; किन्तु अभेदोपासना रूप ज्ञानयोग नहीं रह सकता; क्योंकि
एक ही पुरुष के द्वारा एक काल में परस्पर-विरुद्ध भाव होने से भेदोपासना और
अभेदोपासना एक साथ नहीं की जा सकती |
ज्ञानयोग
के साथ शास्त्रविहित कर्म रह सकते; परन्तु कर्मयोग और
भक्तियोग नहीं रह सकते | क्योंकि ज्ञानयोग में अद्वैत भाव है
तथा कर्मयोग और भक्ति योग में द्वैतभाव है – अत: एक पुरुष में
एक काल में दो प्रकार के भावों का अस्तित्व संभव नहीं | अर्थात्
अभेद-ज्ञान के साथ भक्तियोग और कर्मयोग एक साथ नहीं रह सकते; परन्तु भक्तियोग और कर्मयोग–दोनों में द्वैत भाव और
संसार की सत्ता समान होने के कारण ये दोनों एक साथ रह सकते है |
प्रश्न – भगवत्प्राप्त आचार्यो में से किन-किन आचार्यों का सिद्धांत निर्दोष है ?
उत्तर – भगवत्प्राप्त सभी आचार्यों की जो मान्यता है उसी को उसके अनुयायी सिद्धांत
कहते है; किन्तु वास्तव में
सिद्धांत तो जो अंतिम प्रापणीय वस्तु है,वही है और वह सबका एक है | उनकी मान्यता को
सिद्धांत इसलिए मानते हैं कि उसे सिद्धांत मानने से साधन में तत्परता होती है |
इसलिए उनकी मान्यता को सिद्धांत का रूप देना उचित ही है और
भगवत्प्राप्त आचार्यों के द्वारा चलाये हुए सभी मार्ग श्रद्धालु के लिए मुक्तिदायक
होने से निर्दोष है; किन्तु तर्क की कसौटी पर कसने से कोई भी
निर्दोष नहीं ठहर सकता |
प्रश्न- आप द्वैत
(भेदोपसना) और अद्वैत (अभेदोपासना) इनमें से किसको उत्तम बतलाते है ?
उत्तर – दोनों को ही उत्तम मानता हूँ और जो जैसा अधिकारी होता है, उसके लिए उसी को उत्तम बतलाता हूँ |
प्रश्न – कौन किसका अधिकारी है – इसका आप किस प्रकार निर्णय
करते हैं ?
उत्तर – जिसकी श्रद्धा और रूचि में भेदोपासना होती है, वह
भेदोपासना का और जिसको अभेदोपासना में होती है, वह अभेदोपासना का अधिकारी है;
किन्तु जब तक श्रद्धा और रूचि का निर्णय नहीं होता, तब तक परमात्मा के नाम का जप, उनके स्वरुप का ध्यान,
सत्पुरुषों का संग, सत-शास्त्रों का
स्वाध्याय- इनको मैं सभी साधकों के लिए उत्तम समझता हूँ
|
प्रश्न – आप साधक के लिए किस नाम का जप और किस रूप का ध्यान बतलाते है ?
उत्तर – वह सदा से ॐ, शिव, राम,
कृष्ण, नारायण, हरि आदि
में से जिस नाम का जप तथा जिस साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण
रूप का ध्यान करता आया है अथवा जिस नाम और जिस रूप में उसकी श्रद्धा-रूचि होती है,
उसी को करने के लिए कहा जाता है या पूछने के समय उसके भावों के
अनुसार भी बतलाया जाता है |
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!
जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर
