|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
मूकं करोति वाचालं पंगुम
लंघयते गिरिम् | यत्कृपा तमहं वंदे परमानन्दमाधवम् ||
गीता ज्ञान का अथाह समुद्र है – इसके
अन्दर ज्ञान का अनन्त भण्डार भरा पड़ा है |
इसका तत्व समझाने में बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान और तत्वालोचक महात्माओं की वाणी भी
कुंठित हो जाती है | क्योंकि इसका पूर्ण रहस्य भगवान
श्रीकृष्ण ही जानते हैं | उनके बाद कहीं इसके संकलनकर्ता
व्यास जी और श्रोता अर्जुन का नंबर आता है | ऐसी अगाध
रहस्यमयी गीता का आशय और महत्व समझाना मेरे लिए ठीक वैसा ही है जैसा एक साधारण
पक्षी का अनन्त आकाश का पता लगाने के लिए प्रयत्न करना |
गीता अनन्त भावों का अथाह समुद्र है | रत्नाकर में गहरा गोता
लगाने पर जैसे रत्नों की प्राप्ति होती है
वैसे ही इस गीता सागर में गहरी डुबकी लगाने से जिज्ञासुओं को नित्य नूतन विलक्षण
भाव-रत्न राशि की उपलब्धि होती है |
गीता सर्वशास्त्रमयी है – यह सब उपनिषदों
का सार है | सूत्रों में जैसे विशेष भावों
का समावेश रहता है | उससे भी कहीं बढ़कर भावों का भण्डार इसके
श्लोको में भरा पड़ा है | इसके श्लोकों को श्लोक नहीं, मन्त्र कहना चाहिए | भगवान के मुख से कहे जाने के
कारण वस्तुत: मंत्रो से भी बढ़कर ये परम मन्त्र हैं | इतने पर
भी ये श्लोक क्यों कहे गए है ? इसलिए की वेद-मंत्रो से जैसे
स्त्री और शुद्रादि वंचित रह जाते है, कहीं वैसे ही वे
बेचारे इस अनुपम गीता-शास्त्र से भी वंचित न रह जाये |
योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने सब जीवों के कल्याणार्थ अर्जुन के बहाने इस तात्त्विक
ग्रन्थ-रत्न को संसार में प्रकट किया है | इसके प्रचार की
प्रशंसा करते हुए भगवान ने, चाहे वे कोई भी हो, भक्तों में इसके प्रचार की स्पष्ट आज्ञा दी है-
य इमं परमं गुह्यं
मद्भक्तेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा
मामेवैष्यत्यसंशयः ||
न
च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः |
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो
भुवि || (गीता १८/६९-६८)
‘जो पुरुष मुझमें परम
प्रेम करके इस परम रहस्यमय गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा | न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और
न उससे बढ़कर मेरा अत्यंत प्रिय पृथ्वी में दूसरा कोई होवेगा |’
गीता का प्रचार-क्षेत्र संकीर्ण और शिथिल
नहीं है | भगवान यह नहीं कहते कि अमुक जाति, वर्णाश्रम अथवा
देश-विदेश में ही इसका प्रचार किया जाना चाहिए | भक्त होने
पर चाहे मुसलमान हो, चाहे ईसाई,
ब्राह्मण हो या शूद्र सभी इसके अधिकारी हैं, परन्तु भगवान यह
अवश्य कहते हैं –
इदं ते नातपस्काय
नाभक्ताय कदाचन |
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च
मां योऽभ्यसूयती || (गीता १८ | ६७ )
‘तेरे हितार्थ कहे हुए
गीतारूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तप रहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और
न भक्ति रहित के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छा वाले के ही प्रति और जो मेरी निंदा करता
है उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिए |’
यह निषेध ठीक भी है, ब्राह्मण होने पर भी यदि वह अभक्त है तो इसका अधिकारी नहीं है | शूद्र भी भक्त हो तो इसका अधिकारी है | जाति-पाँति और ऊँच-नीच का इसमें कोई बंधन नहीं | अनाधिकरियों के लिए और भी तो विशेषण कहे गए हैं ? यह ठीक है | जब भक्तों के लिए खुली आज्ञा हैं तो जो भक्त होता है वह निंदा नहीं कर सकता, भक्तों को अपने भगवान् के अमृत वचन सुनने की उत्कंठा रहती ही है | अपने प्रियतम की बात को न सुनने का तो प्रेमी भक्त के सामने कोई प्रश्न ही नहीं है | ईश्वर की भक्ति होने पर तप तो उसमें आ ही गया, अत: इससे यह सिद्ध हुआ कि चाहे कोई भी मनुष्य हो भगवान् श्रीकृष्ण का भक्त होने पर वह गीता का अधिकारी है | इसके प्रत्येक श्लोक को मन्त्र या सूत्र कुछ भी मानकर जितना भी इससे महत्व दिया जाये उतना ही थोड़ा है | मक्खन जैसे दूध का सार है वैसे ही गीता उपनिषदों का निचोड़ है | इसलिए व्यास जी ने कहा है –
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनंदन: |
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ||
सब उपनिषदें गौ हैं,
भगवान् गोपालनंदन श्रीकृष्ण दुहने वाले हैं, पार्थ बछड़ा हैं, गीतारूप महान अमृत ही दूध है, अच्छी बुद्धि वाले
अधिकारी उसके भोक्ता हैं |......शेष अगले ब्लॉग में
नारायण !! नारायण !!! नारायण
!!! नारायण !!!
जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर
