※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रभाव



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

मूकं करोति वाचालं पंगुम लंघयते गिरिम् | यत्कृपा तमहं वंदे परमानन्दमाधवम् ||


        गीता ज्ञान का अथाह समुद्र है – इसके अन्दर ज्ञान का अनन्त भण्डार भरा पड़ा है | इसका तत्व समझाने में बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान और तत्वालोचक महात्माओं की वाणी भी कुंठित हो जाती है | क्योंकि इसका पूर्ण रहस्य भगवान श्रीकृष्ण ही जानते हैं | उनके बाद कहीं इसके संकलनकर्ता व्यास जी और श्रोता अर्जुन का नंबर आता है | ऐसी अगाध रहस्यमयी गीता का आशय और महत्व समझाना मेरे लिए ठीक वैसा ही है जैसा एक साधारण पक्षी का अनन्त आकाश का पता लगाने के लिए प्रयत्न करना | गीता अनन्त भावों का अथाह समुद्र है | रत्नाकर में गहरा गोता लगाने पर  जैसे रत्नों की प्राप्ति होती है वैसे ही इस गीता सागर में गहरी डुबकी लगाने से जिज्ञासुओं को नित्य नूतन विलक्षण भाव-रत्न राशि की उपलब्धि होती है |

        गीता सर्वशास्त्रमयी है – यह सब उपनिषदों का सार है | सूत्रों में जैसे विशेष भावों का समावेश रहता है | उससे भी कहीं बढ़कर भावों का भण्डार इसके श्लोको में भरा पड़ा है | इसके श्लोकों को श्लोक नहीं, मन्त्र कहना चाहिए | भगवान के मुख से कहे जाने के कारण वस्तुत: मंत्रो से भी बढ़कर ये परम मन्त्र हैं | इतने पर भी ये श्लोक क्यों कहे गए है ? इसलिए की वेद-मंत्रो से जैसे स्त्री और शुद्रादि वंचित रह जाते है, कहीं वैसे ही वे बेचारे इस अनुपम गीता-शास्त्र से भी वंचित न रह जाये | योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने सब जीवों के कल्याणार्थ अर्जुन के बहाने इस तात्त्विक ग्रन्थ-रत्न को संसार में प्रकट किया है | इसके प्रचार की प्रशंसा करते हुए भगवान ने, चाहे वे कोई भी हो, भक्तों में इसके प्रचार की स्पष्ट आज्ञा दी है-

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ||

 न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः |
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि || (गीता १८/६९-६८)

‘जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्यमय गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा | न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यंत प्रिय पृथ्वी में दूसरा कोई होवेगा |’

        गीता का प्रचार-क्षेत्र संकीर्ण और शिथिल नहीं है | भगवान यह नहीं कहते कि अमुक जाति, वर्णाश्रम अथवा देश-विदेश में ही इसका प्रचार किया जाना चाहिए | भक्त होने पर चाहे मुसलमान हो, चाहे ईसाई, ब्राह्मण हो या शूद्र सभी इसके अधिकारी हैं, परन्तु भगवान यह अवश्य कहते हैं –

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन |
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयती || (गीता १८ | ६७ )

‘तेरे हितार्थ कहे हुए गीतारूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तप रहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और न भक्ति रहित के प्रति तथा न बिना सुनने की  इच्छा वाले के ही प्रति और जो मेरी निंदा करता है उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिए |’

यह निषेध ठीक भी है
, ब्राह्मण होने पर भी यदि वह अभक्त है तो इसका अधिकारी नहीं है | शूद्र भी भक्त हो तो इसका अधिकारी है | जाति-पाँति और ऊँच-नीच का इसमें कोई बंधन नहीं | अनाधिकरियों के लिए और भी तो विशेषण कहे गए हैं ? यह ठीक है | जब भक्तों के लिए खुली आज्ञा हैं तो जो भक्त होता है वह निंदा नहीं कर सकता, भक्तों को अपने भगवान् के अमृत वचन सुनने की उत्कंठा रहती ही है | अपने प्रियतम की बात को न सुनने का तो प्रेमी भक्त के सामने कोई प्रश्न ही नहीं है | ईश्वर की भक्ति होने पर तप तो उसमें आ ही गया, अत: इससे यह सिद्ध हुआ कि चाहे कोई भी मनुष्य हो भगवान् श्रीकृष्ण का भक्त होने पर वह गीता का अधिकारी है | इसके प्रत्येक श्लोक को मन्त्र या सूत्र कुछ भी मानकर जितना भी इससे महत्व दिया जाये उतना ही थोड़ा है | मक्खन जैसे दूध का सार है वैसे ही गीता उपनिषदों का निचोड़ है | इसलिए व्यास जी ने कहा है –

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनंदन: |
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ||


सब उपनिषदें गौ हैं, भगवान् गोपालनंदन श्रीकृष्ण दुहने वाले हैं, पार्थ बछड़ा हैं, गीतारूप महान अमृत ही दूध है, अच्छी बुद्धि वाले अधिकारी उसके भोक्ता हैं |......शेष अगले ब्लॉग में
नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर