|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
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कृष्णं वंदे जगद्गुरुम |
गत ब्लॉग से आगे...
इस प्रकार गीता का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य को
किसी दूसरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती | इसमें सब शास्त्रों
का पर्यवसान है | गहरा गोता लगाने पर इसमें अनेक अनोखे
रत्नों की प्राप्ति होती है | अधिक मनन से ज्ञान का भण्डार खुल जाता है | इसलिए कहा गया है की –
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः
शास्त्रसंग्रहैः |
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्
विनि:सृता || (महा०, भीष्म० ४३/१)
गीता भगवान का स्वरुप है, श्वास है – भाव है | इस श्लोक
के ‘पद्यनाभ’ और ‘मुखपद्म’ शब्दों में बड़ा विलक्षण भाव भरा पड़ा हैं |
इनके पारस्परिक अंतर और रहस्य पर भी ध्यान देना चाहिये | भगवान ‘पद्यनाभ’ कहलाते हैं, क्योंकि उनकी नाभि से कमल निकला और उस
कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई | इन्हीं ब्रह्मा के मुख से
चारों वेद कहे गए हैं और उन वेदों का ही विस्तार सब शास्त्रों में किया गया है |
अब गीता की उत्पत्ति पर विचार कीजिये | वह
स्वयं परमात्मा के मुख कमल से निकली है, अत: गीता भगवान का
हृदय है | इसलिये यह मानना पड़ता
है कि सर्वशास्त्र गीता के पेट में समाये हुए हैं | जिसने
केवल गीता का ही सम्यक् अभ्यास कर लिया, उसे अन्य शास्त्र के
विस्तार की आवश्यकता ही क्या है ? उसके कल्याण के लिए तो
गीता का एक ही श्लोक पर्याप्त है |
अब
‘सुगीता’ के अर्थ पर विचार करना चाहिये | यह ठीक है की गीता का केवल पाठ करने वाले का भी कल्याण हो सकता है,
क्योंकि भगवान ने प्रतिज्ञा की है कि –
अध्येष्यते
च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः |
ज्ञानयज्ञेन
तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मति: || (गीता
१८/७०)
पर
त्रुटि इतनी ही है कि वह उसके तत्त्व को नहीं जानता | इससे उत्तम वह जो इसका पाठ अर्थ और भावों को समझकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक
करता है | इस प्रकार एक श्लोक का भी पाठ करनेवाला उससे बढ़कर
माना जायगा | इस हिसाब से गीता का पाठ यद्यपि प्रायः दो
वर्षों में समाप्त होगा, पर उसके ७०० श्लोकों के केवल नित्य
पाठ के फल से भी इसका फल विशेष ही रहेगा | इस प्रकार अर्थ और
भाव को समझकर गीता का अभ्यास करनेवाले से भी वह उत्तम माना जायगा जो उसके अनुसार
अपने जीवन को बना रहा है | चाहे यह व्यक्ति दो वर्षों में
केवल एक ही श्लोक को काम में लाता है, पर इस प्रकार
परमात्म-प्राप्ति के साधन वाले श्लोकों में से किसी एक को धारण करनेवाला सर्वोत्तम
है | एक पुरुष तो लाखो श्लोकों का पाठ करता गया, दूसरा सात सौ का और केवल तीसरा एक ही का | पर हमें
यह मानना पड़ेगा की केवल एक ही श्लोक को आचरण में लाने
वाला मनुष्य लाखों का पाठमात्र करने वाले की अपेक्षा श्रेष्ठ है, इस प्रकार
गीता के सम्पूर्ण श्लोको का अध्ययन करके जो उन्हें पूर्णतया जीवन में कार्यान्वित
कर लेता है उसीका ‘गीता सुगीता ’ कर
लेना है | गीता के अनुसार इस प्रकार चलनेवाला ज्ञानी तो गीता
की चैतन्यमय मूर्ति है |.......... शेष
अगले ब्लॉग में
नारायण – नारायण – नारायण – नारायण –नारायण
नारायण !! नारायण !!! नारायण
!!! नारायण !!!
जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर