※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

ब्रह्मचर्य -4-(ब्रह्मचर्य की रक्षा से लाभ और उसके नाश से हानियाँ)



|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथिपंचांग

पौष शुक्ल, चतुर्थी ,मंगलवार , वि० स० २०६९


 ब्रह्मचर्य की रक्षा से लाभ और उसके नाश से हानियाँ

 ब्रह्मचर्य की रक्षा से शरीर में बल, तेज, उत्साह एवं ओज की वृद्धि होती है, शीत, उष्ण, पीड़ा आदि सहन करने की शक्ति आती है, अधिक परिश्रम करनेपर भी थकावट कम आती है, प्राणवायु को रोकनेकी शक्ति आती है, शरीर में फुर्ती एवं चेतनता रहती है, आलस्य तथा तन्द्रा कम आती है, बीमारियों के आक्रमण को रोकने की शक्ति आती है, मन प्रसन्न रहता है, कार्य करने की क्षमता प्रचुर मात्रा में रहती है, दूसरे के मनपर प्रभाव डालने की शक्ति आती है, संतान दीर्घायु, बलिष्ट एवं स्वस्थ होती है , इन्द्रियाँ सबल रहती है, शरीर के अंग-प्रत्यंग सुदृढ़ रहते हैं, आयु बढती है, वृद्धावस्था जल्दी नहीं आती, शरीर स्वस्थ एवं हलका रहता है, स्मरणशक्ति बढ़ती है, बुद्धि तीव्र होती है, मन बलवान होता है, कायरता नहीं आती, कर्तव्यकर्म करनेमें अनुत्साह नहीं होता, बड़ी-से-बड़ी विपत्ति आनेपर भी धैर्य नहीं छूटता, कठिनाइयों एवं विघ्न-बाधाओं का वीरता पूर्वक सामना करने की शक्ति आती है, धर्मपर दृढ़ आस्था होती है, अंतःकरण शुद्ध रहता है, आत्मसम्मान का भाव बढ़ता है, दुर्बलों को सताने की प्रवृत्ति कम होती है, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि के भाव कम होते हैं, क्षमा का भाव बढ़ता है, दूसरों के प्रति सहिष्णुता तथा सहानुभूति बढ़ती है, दूसरों का कष्ट दूर करने तथा दीन-दुखियो की सेवा करनेका भाव बढ़ता है, सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, वीर्य में अमोघता आती है, पर-स्त्री के प्रति मातृभाव जाग्रत होता है, नास्तिकता तथा निराशा के भाव कम  होते हैं; असफलता में भी विषाद नहीं होता, सबके प्रति प्रेम एवं सद्भाव रहता है तथा सबसे बढ़कर भगवत्प्राप्ति की योग्यता आती है, जो मनुष्य –जीवन का चरम फल है, जिसके लिए यह मनुष्य देह हमें मिला है |
     
    इसके विपरीत ब्रह्मचर्य के नाश से मनुष्य नाना प्रकार की बीमारियों का शिकार हो जाता है, शरीर खोखला हो जाता है, थोड़ा-सा भी परिश्रम अथवा कष्ट सहन नहीं होता, शीत, उष्ण आदि का प्रभाव शरीर पर बहुत जल्दी होता है, स्मरणशक्ति कमजोर हो जाती है, संतान उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो जाती है, संतान होती भी है तो दुर्लभ एवं अल्पायु होती है , मन अत्यंत दुर्बल हो जाता है, संकल्पशक्ति कमजोर हो जाती है, स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है, जरा भी प्रतिकूलता सहन नहीं होती, आत्मविश्वास कम हो जाता है, काम करने में उत्साह नहीं रहता, शरीर में आलस्य छाया रहता है, चित्त सदा सशंकित रहता है, मन में विषाद छाया रहता है, कोई भी नया काम हाथ में लेने में भय मालूम होता है, थोड़े-से भी मानसिक परिश्रम से दिमाग में थकान आ जाती है, बुद्धि मंद हो जाती है, अधिक सोचने की शक्ति नहीं रहती, असमय में ही वृद्धावस्था आ घेरती है और थोड़ी ही अवस्था में मनुष्य काल के गाल में चला जाता है, चित्त स्थिर नहीं हो पता, मन और इन्द्रियाँ वश में नहीं हो पातीं और मनुष्य भगवत्प्राप्ति के मार्ग से कोसों दूर हट जाता है | वह न इस लोकमे सुखी रहता है और न परलोक में ही | ऐसी अवस्था में मनुष्य को चाहिए कि बड़ी सावधानी से वीर्य की रक्षा करे | वीर्यरक्षा ही जीवन है और वीर्यनाश ही मृत्यु है, इस बात को सदा स्मरण रखे | गृहस्थाश्रम में भी केवल संतानोत्पादन के उद्देश्य से ऋतुकाल में अधिक-से-अधिक महीने में दो बार स्त्रीसंग करे |

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     
जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक कोड ६८३ , गीताप्रेस गोरखपुर 

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