|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण, सप्तमी, मंगलवार, वि०
स० २०६९
महात्मा शब्द का अर्थ और प्रयोग
‘महात्मा’ शब्द का अर्थ है ‘महान आत्मा’ यानी सबका आत्मा ही
सका आत्मा है | इस सिद्धान्त से ‘महात्मा’ शब्द
वस्तुत: एक परमेश्वर के लिए ही
शोभा देता है, क्योकि सबके आत्मा होने के कारण वे ही महात्मा है | श्रीभगवदगीता में
भगवान स्वयं कहते है | ‘हे अर्जुन ! मैं सब भूत प्राणियोंके ह्रदय में स्तिथ सबका
आत्मा हूँ |’ परन्तु जो पुरुष भगवान को तत्व से जानता है अर्थात भगवान को प्राप्त
हो जाता है वह भी महात्मा ही है, अवश्य ही ऐसे महात्माओ का मिलना बहुत ही दुर्लभ
है | गीता में भगवान ने कहा है
‘हजारों मनुष्यों में कोई ही मेरी प्राप्ति के लिये यत्न
करता है और उन यत्न करने वाले योगिओं में कोई ही पुरुष (मेरे परायण हुआ ) मुझको
तत्व से जानता है |
जो भगवान को प्राप्त हो जाता है, उसके लिए सम्पूर्ण भूतों
का आत्मा उसी का आत्मा हो जाता है | क्योकि परमात्मा सबके आत्मा है और वह भक्त
परमात्मा में स्तिथ है | इसलिए सबका आत्मा ही उसका आत्मा है | इसके सिवाय ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’
(गीता ५/७) यह विशेषण भी उसी के लिए आया है | वह पुरुष सम्पूर्ण भूत-प्राणियों को
अपने आत्मा में और आत्मा को सम्पूर्ण भूत-प्राणियों में देखता है | उसके ज्ञान में
सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंके और अपने आत्मा में कोई भेद-भाव नहीं रहता | ‘जो समस्त
भूतों को अपने आत्मा में और समस्त भूतोमें अपने आत्मा को ही देखता है, वह फिर किसी
से घ्रणा नहीं करता |’ (इश० ६)
सर्वर्त्र ही उसकी आत्म-दृष्टी हो जाती है,अथवा यों कहिये
की उसकी दृष्टी में एक विज्ञानानन्ध्घन वासुदेव से भिन्न और कुछ भी नहीं रहता |
ऐसे ही महात्माओ की प्रशंसामें भगवान ने कहा है ‘सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार
(जाननेवाला) महात्मा अति दुर्लभ है |’ शेष अगले ब्लॉग में .....
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!