※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

सत्संग की कुछ सार बातें-१२-


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, शुक्रवारवि० स० २०७०




अपने द्वारा किसी का अनिष्ट हो जाय तो सदा उसका हित ही करता रहे, जिससे कि अपने किये हुए अपराध को वह मनसे भूल जाय, यही इसका असली प्रायश्चित है ।

मन और इन्द्रियोंको इस प्रकार वशमें रखना चाहिये कि जिस से व्यर्थ और पापके काममें न जाकर जहाँ हम लगाना चाहें उसी भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर लगी रहें ।

ब्रह्मचर्य के पालन पर हरेक मनुष्य को विशेष ध्यान देना चाहिये ।

कामकी उत्पत्ति संकल्प से होती है, सुन्दर जवान स्त्री और बालक आदि के संगसे ब्रह्मचर्यका नाश होता है ।

गृहस्थी मनुष्यको महीने में एक बार से अधिक स्त्री-प्रसंग नहीं करना चाहिये । ऋतुकाल पर महीनेमें एक बार स्त्री-प्रसंग करने वाला गृहस्थी ब्रह्मचारी के तुल्य है।

जीते हुए मन-इन्द्रिय मित्र के सामान है और न जीते हुए विषयासक्त मन-इन्द्रिय शत्रु के सामान हैं ।

शरीर और संसार में जो आसक्ति है , वही सारे अनर्थों का मूल है, उसका सर्वथा त्याग करना चाहिये ।
कोई भी सांसारिक भोग खतरे से खाली नहीं, इसलिये उससे दूर रहना चाहिये ।
कंचन, कामिनी, मान, बडाई, ईर्ष्या, आलस्य, प्रमाद, ऐश , आराम, भोग, दुर्गुण और पाप को साधन में महान विघ्न समझकर इनसबका विषके तुल्य सर्वथा त्याग करना चाहिये  ।

ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, सद्गुण, सदाचार, सेवा, और संयमको अमृत के सामान समझकर सदा सर्वदा इनका सेवन करना चाहिये ।

श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसेगीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!