※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

सत्संग की कुछ सार बातें-११-


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र पूर्णिमा,  गुरुवारवि० स० २०७०




स्वार्थ का त्याग सामान व्यवहारसे भी श्रेष्ठ है, इसलिये नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा करनी चाहिये ।

स्त्रीके लिये पातिव्रत्यधर्म ही सबसे बढ़कर है । इसलिये भगवान् को याद रखते हुए ही पतिकी आज्ञा का पालन विशेषता से करना चाहिये तथा पतिके और बड़ों के चरणों में नमस्कार करना और उनसबकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये ।

विधवा स्त्री के लिये तो विषय-भोगों से वैराग्य, ईश्वर की भक्ति, सद्गुण-सदाचारका पालन और नि:स्वार्थभावसे सबकी सेवा ही सर्वोत्तम धर्म है ।

दूसरों को दुःख पहुँचाने के सामान कोई पाप नहीं है और सुख पहुँचाने के सामान कोई धर्म नहीं है । इसलिये हर समय दूसरों के हित के लिये प्रयत्न करना चाहिये ।

कुटुम्ब, ग्राम, जिला, प्रान्त, देश, द्वीप, पृथ्वी और त्रिलोकीतक उत्तर-उत्तरवाले के हित के लिये पूर्व-पूर्व वाले के हितका त्याग कर देना चाहिये । { अर्थात् :~ पृथ्वीके हितके लिए द्वीपके हित, द्वीपके हितके लिए देश के हित, देशके हितके लिए प्रांतके हित का त्याग कर देना चाहिये। } 

किसी के भी दुर्गुण-दुराचार का दर्शन, श्रवण, मनन, और कथन नहीं करना चाहिये। यदि उसमे किसी का हित हो तो कर सकते हैं; किन्तु मन धोखा दे सकता है, अत: खूब सावधानी के साथ विचार पूर्वक करना चाहिये ।

किसी का उपकार करके उसपर अहसान न करे, न किसी से कहे और न मनमे अभिमान ही करे; नहीं तो किया हुआ उपकार क्षीण हो जाता है । ऐसा समझे कि सब कुछ भगवान् करवाते हैं, मैं तो निमित्तमात्र हूँ ।

अनिष्ट करने वाले के साथ बदले में बुराई न करे, उसे क्षमा कर दे; क्योंकि प्रतिहिंसा का भाव रखने से मनुष्य दोष का भागी होता है ।

यदि अनिष्ट करने-वाले को दण्ड देने से उसका उपकार होता हो तो ऐसी अवस्था में उसे दण्ड देनेमें दोष नहीं है ।

अपने पर किये हुए उपकार को आजीवन कभी न भूले एवं अपना उपकार करने वाले का बहुत भारी प्रत्युपकार करके भी अपने ऊपर उसका अहसान ही समझे ।

श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसेगीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!