|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र पूर्णिमा, गुरुवार, वि० स० २०७०
स्वार्थ
का त्याग सामान व्यवहारसे भी श्रेष्ठ है, इसलिये नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा करनी
चाहिये ।
स्त्रीके लिये
पातिव्रत्यधर्म ही सबसे बढ़कर है । इसलिये भगवान् को
याद रखते हुए ही पतिकी आज्ञा का पालन विशेषता से करना चाहिये तथा पतिके और बड़ों के
चरणों में नमस्कार करना और उनसबकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये ।
विधवा
स्त्री के लिये तो विषय-भोगों से वैराग्य, ईश्वर की
भक्ति, सद्गुण-सदाचारका पालन और नि:स्वार्थभावसे सबकी सेवा ही सर्वोत्तम धर्म है ।
दूसरों को दुःख पहुँचाने के सामान कोई पाप नहीं है और सुख पहुँचाने के
सामान कोई धर्म नहीं है । इसलिये हर समय दूसरों के हित के लिये प्रयत्न
करना चाहिये ।
कुटुम्ब,
ग्राम, जिला, प्रान्त, देश, द्वीप, पृथ्वी और त्रिलोकीतक उत्तर-उत्तरवाले के हित
के लिये पूर्व-पूर्व वाले के हितका त्याग कर देना चाहिये । { अर्थात् :~ पृथ्वीके
हितके लिए द्वीपके हित, द्वीपके हितके लिए देश के हित, देशके हितके लिए प्रांतके
हित का त्याग कर देना चाहिये। }
किसी के भी दुर्गुण-दुराचार का दर्शन, श्रवण, मनन, और कथन नहीं करना चाहिये। यदि उसमे किसी का हित हो तो कर सकते हैं; किन्तु मन
धोखा दे सकता है, अत: खूब सावधानी के साथ विचार पूर्वक करना चाहिये ।
किसी
का उपकार करके उसपर अहसान न करे, न किसी से कहे और न मनमे अभिमान ही करे; नहीं तो किया हुआ उपकार क्षीण हो जाता है । ऐसा समझे कि सब कुछ भगवान् करवाते हैं, मैं तो निमित्तमात्र हूँ ।
अनिष्ट
करने वाले के साथ बदले में बुराई न करे, उसे क्षमा कर दे; क्योंकि प्रतिहिंसा
का भाव रखने से मनुष्य दोष का भागी होता है ।
यदि अनिष्ट
करने-वाले को दण्ड देने से उसका उपकार होता हो तो ऐसी अवस्था में उसे दण्ड देनेमें
दोष नहीं है ।
अपने पर किये हुए उपकार को आजीवन कभी न भूले एवं अपना उपकार करने
वाले का बहुत भारी प्रत्युपकार करके भी अपने ऊपर उसका अहसान ही समझे ।
—श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसे, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!