※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 17 मई 2013

भगवान की दया -१०-


      || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख शुक्ल, सप्तमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग से आगे ... ईश्वर की दया के लिए क्या कहा जाये ? सम्पूर्ण जीवों के मस्तक पर उनका निरन्तर हाथ है, परन्तु अभागे जीव उस हाथ का हटा कर परे कर देते है |

जब यह जीव कोई बुरा काम करने के लिए तैयार होता है तो प्राय: ही उसी के ह्रदय से यह आवाज आती है की ‘यह बुरा काम है |’ इस प्रकार की जो चेतावनी है, यह ईश्वर का मस्तक पर हाथ है | ईश्वर उसको समय पर चेता देते है | मालूम होता  है, मानो हृदयस्थ कोई पुरुष निषेध करता है की यह काम बुरा है, परन्तु काम या क्रोध के वश होकर ईश्वर की आज्ञा की अवेहलना करके बुरे काम में प्रवृत हो ही जाता है, यह उसी कृपसिन्धु की कृपा का अवेहलना करना है अर्थात अपने मस्तक पर जो उनका हाथ है उसको परे हटाना है |

समय-समय पर परमेश्वर उत्तम काम करने के लिए भी ह्रदय में प्रेरणा करते है | भजन-ध्यान, सेवा-सत्संग आदि करने से स्फुरणा होती है, परन्तु यह जीव उसकी अवहेलना करके संसार के विषयभोग और प्रमाद में लग जाता है, यह भी उस दयामय का हमारे सर पर जो हाथ है उसको परे करना है |

इसके सिवाजब संसार का ऐश्वर्य अर्थात स्त्री,पुत्र और धनादि आकर प्राप्त होते है, जिसको हम सुख और सम्पति के नाम से कहते है, उनमे भी समय-समय पर क्षय और नाश की भावना उत्पन्न होती है और वह भी स्वाभाविक हमको क्षणभंगुर और नाशवान प्रतीत होते है | ऐसी प्रतीति होने पर भी हम उनका त्याग या सदुपयोग नहीं करते, यह उस दयामय ईश्वर का हाथ अपने मस्तक से पर से हटाना है |

ईश्वर की प्राप्ति के साधन में बाधकरूप जो संसार के धन-जन-मान-ऐश्वर्य आदि के नाश होने पर पुन: उन क्षणभंगुर, नाशवान, दुख:मय पदार्थों की प्राप्ति की जो इच्छा करना है, यह भी उस दयामय का हाथ अपनें मस्तक से परे हटाना है |

जब भगवान के नाम, रूप, गुण और प्रभाव की स्वत: ही स्फुरणा होती है तो समझना चाहिये की यह उनकी सबसे बड़ी दया है | तिसपर भी हम उनको भुला देते है और स्मरण रखने की उचित कोशिश नहीं करते है, यही उस दयामय की दया का हाथ हमारे मस्तक से परे कर देना है |

इसलिए हम लोगो को चाहिये की भगवान की दया को पहचाने और सर्वथा उसकी सरक्षकता में रहकर नित्य निर्भय और परम सुखी हो जायें |

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!