※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 18 मई 2013

ईश्वर सहायक हैं


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख शुक्ल, अष्टमी, शनिवार, वि० स० २०७०

गत ब्लॉग से आगे ... भगवद्भक्ति के पथपर चलने वाले पुरुषों को अपने मन में खूब उत्साह रखना चाहिये | इस बात का सदा स्मरण रखना चाहिये की समस्त विघ्नों के नाश करने वाले और साधन में सतत सहायता पहुँचानेवाले भगवान हमारे पीछे स्तिथ रहकर सदा हमारी रक्षा करते है | रणांगनमें रण-प्रवृत योद्धाके मन में इस स्मृति से महान उत्साह बना रहता है की मेरे पीछे विशाल सैन्यको साथ लिये सेनापति स्थित है | भक्तों को तो इससे भी अनन्तगुण अधिक उत्साह होना चाहिये | क्योंकि उसके पीछे अनन्त शक्ति-संपन्न भगवान का बल  है  | शक्तिशाली सैन्य का सहारा पाकर जब निर्बल भी बलवान बन जाता है, जब कायर भी शूरवीर-सा काम कर दिखाता है | निर्बल, निरुत्साही मनुष्य इस बात को भली-भाँती समझता हुआ  ही मुझमे बड़ीभारी शत्रु-सेना का सामना करने की शक्ति नहीं है, किन्तु शत्रु-सेना की अपेक्षा अपनी सेना को अधिक बलवती देखकर उसके भरोसे लड़ने को तैयार हो जाता है | फिर, जिसके भगवान सहायक हो उसको तो भीषण  विषय-सैन्य को तुच्छ समझकर उसके नाश के लिए बद्ध-परिकर ही हो जाना चाहिये | परमात्मा श्रीकृष्ण अपने प्रेमी भक्तों को आश्वासन देते हुए घोषणा करते है ‘जो अनन्यभाव से मुझमे स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते है, उन नित्य एकीभाव में मुझमे स्थिति वाले पुरुषों को योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त करा देता हूँ |  

भगवान की इस घोषणा पर विश्वासकर कठिन-से-कठिन मार्गपर अग्रसर होने में संकोच नहीं करना चाहिये | शंख, चक्र, गदा आदि धारण करनेवाले भगवान जब हमारे प्राप्त साधन की रक्षा और अप्राप्ति की प्राप्ति करने का स्वयं जिम्मा ले रहे हैं, जब पद-पद पर हमे बचाने के लिए तैयार है, तब इस घोर अंधकारमय संसार-अरण्य से भर निकलने के लिए हमने जिस साधनमय पथ का अवलंबन किया है, उसमे विघ्न करने वाले काम-क्रोध-रूप सिंह-व्याघ्रादी से भय करने की क्या आवश्यकता है ? जब भगवान सदा-सर्वदा हमारे है तब भय किस बात का ? जैसे छोटा बालक माता की गोद में आते ही अपने को निर्भय और निश्चिन्त मानता है, इसी प्रकार हमे भी अपने को परमपिता परमात्मा की गोद में स्थित समझकर निर्भय और निश्चिन्त रहना चाहिये | भगवान तो बल, प्रेम, सुहृदयता आदि में सभी प्रकार सबसे अधिक है | कारण, ये सारे सद्गुण उन्हीं गुणसागरके तो गुण-कण है अतएव सब तरह से शोक, भय आदि को त्याग कर, बड़े उत्साह और उमंग के साथ एक वीर की भाँती अपने अभीष्ट मार्ग पर  द्रुतगति से अग्रसर होना चाहिये |

यह सदा स्मरण रखना चाहिये की जिस प्रकार भक्तप्रवर अर्जुन ने भगवान को सहायता से भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि द्वारा सुरक्षित ग्यारह अक्षोहिणी  कौरव-सेना को विध्वंशकर विजय प्राप्त की थी, उसी प्रकार उनकी सहायता से हम भी काम-क्रोधादिरूप कौरव-सेना का सहज ही में विनाशकर परमात्मा की प्राप्तिरूप सच्चे स्वराज्य को प्राप्त कर सकते है | बस, भगवान को अपना सच्चा अवलम्बन बनाकर भीमार्जुन की भाँती प्राणविसर्जन तक का प्रणकर भगवदाज्ञानुसार कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होने भर की देर है |       

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!