|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख शुक्ल १ ,(अहोरात्र), शुक्रवार,
वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे ...भगवान की दया सर्वथा-सर्वदा और सर्वत्र व्याप्त है ! सुख या
दुःख. जय या पराजय जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह ईश्वर की दया से पूर्ण है और
स्वयं ईश्वर का ही किया हुआ विधान है | उसी की दया इसी रूप में प्रगट हुई है |
मनुष्य जब इस रहस्य को जान लेता है तब उसे सुख और विजय मिलने पर जो हर्ष होता है,
वही दुःख और पराजय में भी होता है | जब तक
ईश्वर के विधान में संतोष नहीं है और संसारिक सुख-दुखादी की प्राप्ति में हर्ष-शोक
होता है, तब तक मनुष्य ने भगवान की दया के तत्व को समझा ही नहीं | जब ईश्वर के
कर्मों के अनुसार फल देने वाला, न्यायकारी, परम प्रेमी, परम हितैषी, परम दयालु और
सुहृद समझ लिया जायगा, तब उनके लिए किये हुए सभी विधानों में आनन्द का पार न रहेगा
| विषयी और पामर पुरुष के ह्रदय में तो स्त्री-पुरुष, धन-धामकी प्राप्ति में
क्षणिक आनन्द होता है, किन्तु दया के मर्मग्य उस पुरुष को तो पुत्र की उत्पति और
नाश में, धन के लाभ और हानि में, शरीर की निरोगता और रुग्णता में तथा अन्यान्य
सम्पूर्ण पदार्थो की प्राप्ति और विनाश में, जैसे-जैसे वह भगवान की दया के प्रभाव
को समझता जायेगा, वैसे-वैसे ही नित्य-निरन्तर उतरोतर अधिकाधिक विलक्षण आनन्द,
शान्ति और समता की वृद्धि होती जाएगी |
जो पुरुष भगवान की दया के यथार्थ प्रभाव को जान लेता है,
उसके उद्धार की तो बात ही क्या है? वह दूसरों के लिए भी मुक्ति दाता बन जाता है |
क्योकि भगवत कृपा ऐसी ही वस्तु है | वह
भगवत कृपा मूक को वाचाल बना देती है और पंगु को पर्वत लाघने की शक्ति दे
देती है | संसार में न होने वाले काम वह दया करा देती है | परमात्मा सर्व-समर्थ
है, उनके लिए कोई भी काम अशक्य नहीं है | जीव सब प्रकार से असमर्थ है, पर परमेश्वर
की दया और आज्ञा से वह भी चाहे सो कर सकता है | मछर ब्रह्मा बन सकता है | अभ यह
प्रश्न उठता है की जब सभी जीवोंपर भगवान की दया सर्वथा अपार और सम है, तब उनकी
दुर्दशा क्यों हो रही है ? इसका उत्तर यह है की लोग भगवान की दया के प्रभाव को
नहीं जानते | एक दरिद्र के घर में पारस है, परन्तु जैसे वह पारस का ज्ञान न होने
के कारण दरिद्रता के दुःख से दुखी ही दीनता के साथ भीख मांगता फिरता है वैसे ही
दया के तत्व को न समझने के कारण सब जीव दुखी हो रहे है |… शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर