|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ शुक्ल,द्वितीया, सोमवार,
वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे...साधक-महापुरुषों
के संग में आपकी दया प्रयत्क्ष है, किन्तु उनके वियोग में आपकी दया कैसे समझी जाय
?
भगवान-प्रकाश के हटाने से मनुष्य प्रकाश के महत्व को समझता
है | इसलिए महापुरुषों से पुन: मिलने की उत्कट इच्छा उत्पन्न करने और उनमे प्रेम
बढ़ाने के लिए उनकी प्राप्ति दुर्लभ और महत्वपूर्ण है इस बात को जानने के लिए ही
मैं उनका वियोग देता हूँ ऐसा समझना चाहिये |
साधक-कुसंग के दोषों से बचाने के लिए आप दुष्ट दुराचारी
पुरुष का वियोग देते है इसमें तो आपकी दया प्रयत्क्ष है, किन्तु बिना इच्छा आप
उनका सन्ग क्यों देते है ?
भगवान-दुराचार से भी होनेवाली हानियों का दिग्दर्शन कराकर
दुर्गुण और दुराचार से वैराग्य उत्पन्न करने के लिए मैं ऐसे मनुष्यों का सन्ग देता
हूँ | किन्तु स्मरण रखना चाहिए, जो जान-बूझकर कुसंग करता है वह मेरा दिया हुआ नहीं
है |
साधक-सर्वसाधारण मनुष्य के संयोग और वियोग में आपकी दया
कैसे देखे ?
भगवान-उनमे दया और प्रेम करके उनकी सेवा करनेके लिए जो
संयोग एवं उनमे वैराग्य करके एकान्त में रहकर निरंतर भजन-ध्यान का साधन करने के
लिए वियोग देता हूँ, ऐसा समझना ही मेरी दया को देखना है |
साधक-नीति-धर्म और भजन-ध्यान में बाधा पहुचाने वाले
मामले-मुक़दमे आदि झनझटमें आपकी दया का अनुभव कैसे करे ?
भगवान-नीति-धर्म, भजन-ध्यान आदि में काम, क्रोध, लोभ, मोह,
भय तथा कमजोरी के कारण ही बाधा आती है | जो मनुष्य न्याय से प्राप्त हुए मुक़दमे
आदि झनझट को मेरा भेजा हुआ पुरुष्कार मानकर निति और धर्म से विचलित नहीं होता है |
उसमे आत्मबल को बढाने वाले धीरता, वीरता, गंभीरता आदि गुणों की वृद्धि होती है |
यह समझना ही मेरी दया का अनुभव है |
साधक-भक्त की मान, बड़ाई, प्रतिष्ठादी को आप क्यों हर लेते है, इसमें क्या रहस्य है ?
भगवान-अज्ञानरूपी निंद्रा से जगाने एवं साधनकी रूकावट को
दूर करने तथा दम्भ को हटाकर सच्ची भक्ति बढ़ाने के लिए ही मैं मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा
आदि को हर लेता हूँ | यही रहस्य है |
साधक-आपकी विशेष दया क्या है |
भगवान-मेरे भजन, ध्यान सेवा, सत्संग, सद्गुण और सदाचार आदि
जो स्मृति , इच्छा और प्राप्ति होती है-यह विशेष दया है |
साधक-ऐसा होता है तब कर्मों के अनुसार आपके किये हुए इन सब
विधानों को आपका भेजा हुआ पुरुष्कार मान कर क्षण-क्षण में मुग्ध होना चाहिये |
भगवान-बात तो ऐसी ही है; किन्तु लोग समझते कहाँ है |
साधक-इसके समझने के लिए क्या करना चाहिये ?
भगवान-गुण और प्रभाव के सहित मेरे नाम रूप का अनन्यभाव से
निरंतर चिंतन रखते हुए ही मेरी आज्ञा के अनुसार निष्काम भाव से कर्मों का आचरण और
मेरी दया का रहस्य को जाने वाले सत्पुरुषों का सत्संग करना चाहिये |
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!