※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

शिक्षाप्रद पत्र

॥श्री हरि:॥

शिक्षाप्रद पत्र

  सादर हरिस्मरण । आपका पत्र मिला । समाचार विदित हुए । आपकी शंकाओं का उत्तर क्रम से निचे लिखा जाता है------
 आपने ईश्वरका अस्तित्व नहीं होने का जो यह कारण बताया कि आज तक कोई उन तक नहीं पहुँच पाया, सो यह आप किस आधार पर लिख रहे हैं । उनतक पहुँचने के लिये वास्तविक खोजमें लग जाने वालोंमेंसे बहुत-से- लोग वहाँ पहुँचे हैं और आज भी पहुँच सकते है ।अत: आपका यह तर्क सर्वथा निराधार है ।

   आपने लिखा कि लाखों-करोड़ों वर्षों तक तपस्या करके भी पार नहीं पाया जा सकता । पर यदि कोई गलत रास्तेसे प्रयास करे या किसी दूसरी वस्तुको पाने के लिये प्रयास करे और वह ईश्वर को न पा सके तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? वरं गीतामें तो भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि  ‘साधक पराभक्ति के द्वारा मुझको, मैं जो हूँ और जैसा हूँ तत्व से जान लेता है और फिर मुझमे ही प्रविष्ट हो जाता है ( गीता अ० १८ श्लोक ५५ )’ । तथा वे पहले भी कह आये हैं कि ‘पहले ज्ञान तपसे पवित्र हुए बहुत-से साधक मेरे भाव को प्राप्त हो चुके हैं(गीता ४ । १० )’ । ‘इस ज्ञान को जानकर सभी मुनि लोग परम सिद्धिको प्राप्त हो चुके हैं इत्यादि ( गीता १४ । १-२ )’ । अत; आपका यह कहना कि कोई उसे नहीं जान सका, निराधार सिद्ध होता है ।

  उसका आदि, अन्त और मध्य न जानने की जो बात कही गयी है, वह तो उस तत्व को असीम और अनन्त बतानेके लिये है । वेदोंने जो ‘नेति-नेति’ कहा है, उसका भी यही भाव है को वह जितना बताया गया है उतना ही नहीं है, उससे भी अधिक है । अत: इससे अभाव सिद्ध नहीं होता ।

   आप गंभीरतासे विचार करें । वैज्ञानिक लोग जो प्रकृतिका अध्ययन करके नये-नये आविष्कार कर रहे हैं, क्या वे कह सकते हैं कि हमने प्रकृति को पूर्णतया जान लिया है, अब कोई आविष्कार शेष नहीं रहा है ? यदि ऐसा नहीं कह सकते तो क्या इतने से मान लेना चाहिये कि उसका अस्तित्व ही नहीं है ?

    बात तो यह है कि किसी भी असीम तत्वकी सीमा कोई निर्धारित नहीं कर सकता । यदि कोई कहे कि मैं उसे पूर्णतया जान गया तो उस व्यक्तिका ऐसा कहना कहाँ तक उचित होगा ? और इस कसौटी पर असीम तत्व के अस्तित्व को अस्वीकार करना भी कहाँ तक युक्तिसंगत है, इस पर भी आप विचार करें ।

    आपने लिखा कि जो है भी और नहीं भी है-----ऐसी ईश्वर की व्याख्या है, सो ऐसी व्याख्या कहाँ है ? यह कौन कह सकता है कि ‘अमुक वस्तु नहीं है’, क्योंकि यह निश्चय करने वाला भी कोई सर्वज्ञ ही होना चाहिये । अमुक वस्तु है या नहीं; ऐसा संदेह तो कोई भी कर सकता है पर नहीं है यह कहने का किसी का भी अधिकार नहीं है । फिर ईश्वर के बारे में यह कहना कि वह नहीं है-----सर्वथा अनुचित है ।

    ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, साकार और निराकार भी है-----यह कहना ठीक है और सर्वथा युक्तिसंगत है । आपने लिखा कि ईश्वर कुछ नहीं है, केवल कल्पना है; क्योंकि सबकुछ का अर्थ कुछ नहीं अर्थात शून्य------होता है, सो ऐसी बात नहीं है; क्योंकि ईश्वर कल्पना से अतीत बताया गया है । गीता अध्याय ८ श्लोक ९ में उसे अचिन्त्य रूप कहा गया है ।
 
    आगे चलकर आपने लिखा कि -क्या जो चैतन्य रूप दिखता है यही यही ईश्वर है ? इसका उत्तर यह है कि जिस हलचल और शक्ति को लक्ष्य करके आपने चैतन्य की व्याख्या की है इसका नाम चेतन नहीं है । शब्द तो आकाश-तत्व का गुण है, शक्ति बिजली का गुण है ।वेग वायु का गुण है । ये सभी जड़ तत्व हैं । इनमे कोई भी चैतन्य नहीं है । चैतन्य तो वह तत्व है, जो इन सबको जनता है और इनका निर्माण भी करता है । जो वस्तु निर्माण की जाती है, किसी के द्वारा संचालित होती है, वह चैतन्य कैसे हो सकती है, यदि चैतन्यकी व्याख्या आप ठीक-ठीक समझ पाते तो सम्भव है आपको ईश्वर की सत्ता का कुछ अनुभव होता ।  मनुष्य को ईश्वर का पता लगाने के पहले यह सोचना चाहिये कि मैं जो ईश्वर की सत्ता है या नहीं इसका निश्चय करना चाहता हूँ, वह मैं कौन हूँ ? जिसमें जानने की अभिलाषा है और जो अपने-आपको तथा अपनेसे भिन्न को जानता है, प्रकशित करता है, वही चेतन हो सकता है । यह समझमे आ जाने पर आगेकी खोज आरम्भ होगी ।

   आपने कल-कारखानों की बात लिखी, कोयले और पानी के मिश्रण की, उसकी शक्ति की बातों पर प्रकाश डाला, फिर बिजली की महिमा का वर्णन किया सो तो ठीक है, पर उनका आविष्कार करनेवालों की महिमा की ओर आपका ध्यान नहीं गया । आप सोचिये, क्या वे कल-कारखाने बिना कर्ताके सहयोग के कुछ भी चमत्कार दिखा सकते है ? यदि नहीं तो विशेषता उनको बनाने और चलानेवालेकी ही सिद्ध हुई ।

    आपने मानव-शरीर को पाँच तत्वों से हुआ बताया, यह तो ठीक है । शरीर तो सभी प्राणियों के पाँच तत्वों से ही बने है । पर पाँच तत्वों का समूह तो केवलमात्र यह दिखने वाला स्थूल शरीर ही है । मन, बुद्धि और अहंकार—— ये तीन तत्व इसके अन्दर और हैं तथा इन सबको जानने और प्रकाशित करनेवाला एक इनका अधिष्ठाता संचालक भी है । उसकी ओर भी आपका ध्यान आकर्षित होना चाहिये । उसके बिना इन सब तत्वों का कोई भी चमत्कार हो ही नहीं सकता । वह कौन है ?------- इस पर विचार कीजिये ।

   आगे चलकर आपने सूर्य, चन्द्र, तारा आदि के विषयमें विज्ञानके आधारपर लिखा कि ये सब अपने-आप हो रहे हैं, परंतु आपने गहराई से विचार नहीं किया । करते तो आप यह भी समझ सकते कि कोई भी जड़ पदार्थ बिना किसी संचालक के बहुत काल तक नियमित-रूपसे नहीं चल सकता । जितना भी वैज्ञानिक आविष्कार है---जैसे अणु बम, रेडियो, बिजली, और स्टीम से होनेवाले काम, हवाई-जहाज आदि, क्या कोई भी यन्त्र अपने-आप बन जाता है या उसका संचालन अपने-आप हो जाता है ? यदि नहीं तो फिर ये सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, तारा आदि यन्त्र अपने आप कैसे बन गए और अपने-आप  नियमित-रूपमें कैसे संचालित होने लगे ?

शेष भाग क्रमशः


नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........   —परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका-सेठजी, पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ,कोड 281 ,गीता प्रेस गोरखपुर