॥श्रीहरि:॥
शिक्षाप्रद पत्र
पिछला
शेषभाग आगे...........
आपने
लिखा कि ‘जहाँ बुद्धि काम न दे, वहाँ
ईश्वरको मान ले’ सो ऐसी बात नहीं है । बुद्धि तो मनुष्य की प्रकृति तक भी नहीं पहुँच पाती, पर उस जड़ प्रकृति को शास्त्रकारों ने ईश्वर
नहीं मान लिया । उस प्रकृति के आंशिक संचालक और प्रकाशक
को भी ईश्वर नहीं माना, ईश्वर का अंश तो माना है । अत: उसकी
सत्ता से ही ईश्वर की सत्ता स्वत: ही सिद्ध हो जाती है ।
अज्ञान का नाम ईश्वर नहीं
है । जो ज्ञान और अज्ञान —— दोनों को जानने वाला है, उसे ईश्वर कहते हैं ।
माया की व्याख्या तो
श्रीतुलसीदासजी ने इस प्रकार की है----
गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ।।
(रामचरितमानस अरण्य० १४/२ )
गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ।।
(रामचरितमानस अरण्य० १४/२ )
अत: जाननेमें न आनेवाली वस्तुका
नाम माया नहीं बताया गया है ।
आपने धर्मग्रन्थ और
मत-मतान्तरोपर आक्षेप करते हुए लिखा कि ‘किसकी मान्यता ठीक
है, कोई कुछ कहते हैं और कोई कुछ कहते हैं । यदि ईश्वर होता
तो सबका मत एक ही होता ।’ यहाँ आपको गम्भीरतासे शांतिपूर्वक
विचार करना चाहिये । यह तो हर विचारशील व्यक्तिको मानना
ही पड़ेगा कि जिस तत्व को कोई जानना चाहता है, उसके विषयमें पहले कुछ-न-कुछ मानना पडता है और वह मान्यता
सत्य न होनेपर भी सत्य का ज्ञान करानेमें हेतु होने के कारण सत्य है। जैसे--अंग्रेजी लिपिमें k इस आकार को ‘क’ माना, उसके आगे एक h
चिह्न और लगाकर उसे ‘ख’
मान लिया, इसी प्रकार सब वर्ण और संकेतोंके विषय में समझ लें
। उर्दू में दूसरे ही संकेत हैं, बंगला में दूसरे हैं और
तमिल, तेलगू आदि दक्षिणी लिपियोंमें दूसरे हैं तथा उन-उन भाषा-भाषियों
के लिये अपनी-अपनी भाषा के मान्य हुए ही चिह्न ही सत्य हैं: क्योंकि वे किसी भी
जाननेमें आनेवाली वस्तुका ज्ञान करानेमें पूरे सहायक हैं । यदि ऐसा न माना जाता तो
आज जगत में कोई विद्वान हो ही नहीं सकता । उसी प्रकार परम
सत्य तत्व को समझानेके लिये हरेक मतावलम्बीने जो अपने-अपने संकेत बनाये हैं, वे साधकों के लिये पथ-प्रदर्शक होनेके नाते
सभी सत्य है । यद्यपि जितने मत है, सभी मान्यता है, पर बिना
मान्यता के हमारा कोई भी छोटे से छोटा काम भी नहीं चलता; फिर
ईश्वर के लिये की जानेवाली मान्यता हमें क्यों अखरती है। क्या छोटी से छोटी वस्तु का ज्ञान कराने के लिये वैज्ञानिकों को विभिन्न संकेतों
का आश्रय नहीं लेना पड़ता? क्या इस कारण को लेकर आविष्कृत
वस्तुकी सत्ता स्वीकार नहीं की जा सकती ?
बीजगणित
में तो सारा काम मान्यता के ही आधार पर चलता है तथा वैज्ञानिक अविष्कारोंमें भी
मान्यता और बीजगणित का ही आश्रय लेना पड़ता है । यह सभी वैज्ञानिकों का अनुभव है ।
परमसत्य ईश्वरतत्व को जानना कोई साधारण विज्ञान नहीं है । अत: उसके लिये तरह-तरह
की मान्यता भी अनिवार्य है; क्योंकि साधकों की रूचि, योग्यता, बुद्धि और श्रद्धा भिन्न-भिन्न होने से भेद
होना अनिवार्य है । अत: मत-मतान्तरों की अनेकतासे एक ईश्वर का होना असिद्ध नहीं हो
सकता । इसलिये आपका यह लिखना की ईश्वर नाम की कोई
वस्तु नहीं है, किसी प्रकार भी
युक्तिसंगत नहीं, केवल प्रमादमात्र है । ‘ईश्वरको न मानने से
मनुष्य वाममार्गी, अत्याचारी,व्यभिचारी
हो जायगा, समाज भ्रष्ट हो जायगा, इसलिए
ईश्वरको मानना चाहिए’, ऐसी बात नहीं है । जो वस्तु नहीं है
उसे मानना तो स्वयं अत्याचार है, उससे अत्याचार आदि का निवारण
कैसे होगा ? अत: उपर्युक्त दुर्गुणोंकी नाशक भी सच्ची मान्यता
ही हो सकती है और वही बात शास्त्रकारों ने बताई है, मिथ्या
कल्पना नहीं है ।
इसी प्रकार
धर्म, पुनर्जन्म, मुक्ति आदि कोई भी
बात कल्पित या मिथ्या नहीं है । झूठसे कभी किसीका कोई लाभ नहीं होता, यही निश्चित निर्णय है । झूठ तो अधर्म है ही, उसे
धर्म कैसे कहा जा सकता है? हमारा धर्मशास्त्र और आध्यात्मिक
शास्त्र ढकोसला नहीं है, वास्तविक हानि-लाभको ही समझानेवाला
है, अत: यही एकमात्र सुधारका रास्ता है । आज उसके नामपर दुनियामें दम्भ बढ़ गया है, इसी कारण अनुभवसे रहित नवशिक्षित पाश्चात्य
शिक्षाके प्रभावमें आये पुरुषोंको धर्म और ईश्वरपर आक्षेप करने का मौका मिल गया है
।
आगे चलकर आपने पूजा-पाठ पर आक्षेप किया है,
वह भी विचारोंकी कमी का द्योतक है । आपको गहराई से विचार करना चाहिये कि क्या ऐसा कोई भी मजदूर
या परिश्रम करनेवाला मनुष्य है जिसको चौबीसों घंटे फुरसत ही नहीं है, उसका सब-का-सब समय शरीर-निर्वाह के लिये
आवश्यक वस्तुओंके उपार्जनमें ही लग जाता है । विचार करने पर ऐसा एक भी मनुष्य नहीं
मिलेगा । उसे भगवान् का भजन-स्मरण और सत्संग-स्वाध्याय के
लिये समय चाहे न मिले पर खेलने, मन बहलाने, सिनेमा देखने और अन्यान्य व्यर्थ कामों के लिये तो समय मिलता ही है । इसके सिवा हमारे धर्म-शास्त्रों में तो यह भी बताया गया है कि जिस मनुष्यका जो कर्तव्य-कर्म
है, उसीको ठीक-ठीक उचित रीति से करेक उसके द्वारा
ही वह ईश्वर की पूजा कर सकता है । अत: इसमे न
तो किसी प्रकार का खर्च है न किसी वस्तुकी जरुरत है,न कोई
समय की ही आवश्यकता है । ऐसी पूजा तो हरेक मनुष्य बिना किसी कठिनाई के कर सकता है ।
आप गीता तत्वविवेचनी अध्याय १८ श्लोक ४५, ४६ और उसकी टीका को
देखिये ।
(नोट- टीका पढने के
लिए- http://www.scribd.com/doc/109699304/Tattva-vivechani-Srimad-Bhagavad-Gita-Gita-Press-Jayadayal-Goyandka-Hindi
)
अत: आपका यह आक्षेप कि ‘जो धनी-मानी,
सेठ-साहूकार निठल्ले बैठे रहते हैं,
उन्हें पूजा-पाठ से मन बहलाना चाहिये’——सर्वथा
युक्तिविरुद्ध है; क्योंकि कोई भी मनुष्य आपको ऐसा नहीं
मिलेगा जिसको मन बहलाते हुए शान्ति मिल गयी हो। शान्ति तो मनको भोगकामना से हटाकर भगवान् में लगाने
से ही मिलेगी, जो कि सहजमें ही किया जा सकता है ।
आप
गीताका नित्य पाठ करते हैं, कल्याण का मनन करते हैं, गायत्री-जप करते हैं यह बड़े सौभाग्य की बात है । परंतु गीताके अनुसार अपना
जीवन बनाने की चेष्टा करें ।
नारायण
नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
— परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका-सेठजी, पुस्तक-शिक्षाप्रद पत्र ,कोड 281 ,गीता प्रेस गोरखपुर
— परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका-सेठजी, पुस्तक-शिक्षाप्रद पत्र ,कोड 281 ,गीता प्रेस गोरखपुर