|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन कृष्ण,
त्रयोदशी श्राद्ध, गुरुवार, वि० स० २०७०
भगवान ने हमे बुद्धि
प्रदान की है | उसे सद्विचार और सत्कार्य में लगाने की आवश्यकता है | जो अविवेकी
इस मनुष्य-शरीर को विषय-भोगादी निंदनीय कार्यो में खो देता है, उसमे और पशुओ में
कोई अन्तर नहीं | सच पुछा जाये तो कहना पड़ेगा की कई अंशो में वे उनसे भी गये-बीते
है | हमे स्वप्न में भी कभी इस विचार को आश्रय नहीं देना चाहिये की हम भोग भी
भोगे और भगवान को भी प्राप्त कर ले | दिन और रात को एक साथ देखना निसन्देह
आकाश-कुसुमो को तोडना है | जहाँ भोग है वह भगवान रह नहीं सकते |
संतो की यह वाणी
ध्रुव-सत्य है |
जहाँ योग तहँ भोग नही, जहाँ
भोग नहीं योग |
जहाँ भोग तहँ रोग है, जहाँ रोग तहँ सोग ||
भोगी से कभी योग का साधन
हो नहीं सकता | भोग का फल रोग और रोग का फल शोक है | अत: पाप-ताप और रोग-शोक की आत्यंतिक निवृति के लिये विषयो
से मुहँ मोड़ कर साधन-पथ पर उत्तरोतर अग्रसर
होते रहना चाहिये | संसार में सार वस्तु परमात्मा है | उससे भिन्न सब कुछ
सर्वथा निस्सार, क्षणिक और अनित्य है | अत: मायिक पदार्थो के संग्रह और भोगो में
आसक्त होने के कारण यदि इसी जन्म में हम परमात्मा की प्राप्ति न कर सके तो
निर्विवाद रूप से मानना होगा की हमारा जीवन भार रूप है |
बन्धुओ ! आप जीवन-कर्तव्य
पर विचार तो कीजिये ? भगवान आपको उन्नति के लिए आवाहन करते है | अवनत होना तो
कर्तव्य-विमुखता है | भगवान कृष्ण की उद्बोधनमयी वाणी पर ध्यान दीजिये –
उदरेदात्मनात्मानं
नात्मानंव्साद्येत (गीता ६|५)
उद्धार का अर्थ क्या है?
उन्नति | रुपये कमाना उन्नति नही है | संतान-वृधि भी उन्नति नहीं है |यह सब् तो
धरे रहेन्गे | इनका मोह त्याग कर अत्मोद्धार के अति-विलक्षण मार्ग पर आगे बढ़िये | समय को व्यर्थ न खोईये | जो लोग
प्रमाद, आलस्य, निन्द्रा और भोग में समय को बिताते है वे अपने को जान बूझ कर
अग्नि में झोकते है | प्रमाद ही मृत्यु है | समय को व्यर्थ खोना ही प्रमाद है |
बहुत से भाई साधन के लिये समय निकालते है सही, परन्तु उन्हे लाभ नहि के बराबर हो
रहा है | इसका कारण यह् है की वे समय क
सदुपयोग और सुधार नही करते | वे कभी एकान्त में बैठकर यह नहि सोचते की ऋषि सेवित
तपोभूमि में, द्विज-जाति में उत्पत्ति और भगवत-सम्बन्धि चर्चा करने -सुनने का
अवसर, इन सारी अनुकूल समग्रिओ के जुट जानेपर भी यदि सुधार न हुआ तो कब होगा ? अब
तो सावधानतया ऐसा प्रयत्न होना चाहिये की जिससे थोडे समय में ही बहुत अधिक लाभ
किया जा सके |…. शेष अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!